________________
१८०
श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
सर्वेऽपि च परप्रकल्पिताः सामान्यसाधनाय हेतवोऽनया दिशा प्रतिषेद्धव्याः ।
कुमारिलप्रकल्पितास्तु – गोपिण्डभेदेषु गोबुद्धिः एकगोत्वनिबन्धना गवाभासत्वात् एकाकारत्वाच्च एकगोपिण्डविषयबुद्धिवत् । अथवा येयं गोबुद्धिः सा शाबलेयान्न भवति तद्व्यतिरिक्तार्थान्तरालम्बना वा, तदभावेऽपि भावात्, घटे पार्थिवबुद्धिवत् । सर्वगतत्वं च सामान्यस्य प्रमाणान्तरात् सिद्धम् । तथाहि – योयं गोमतिः सा प्रत्येकसमवेतार्थविषया, प्रतिपिण्डं कृत्स्नस्वरूपपदार्थाकारत्वात्, प्रत्येकव्यक्तिविषयबुद्धिवत् । एकत्वमपि सामान्यस्य प्रमाणोपपन्नमेव । तथाहि - यद्यपि सामान्यं सर्वात्मना प्रतिव्यक्ति परिसमाप्तं तथाप्येकमेव तत् एकाकारबुद्धिग्राह्यत्वात् यथा नञ्युक्तेषु वाक्येषु ब्राह्मणादिनिवर्त्तनम्। न चैतत् शक्यं वक्तुम् 'भिन्नेषु अभिन्नाकारः प्रत्ययो भ्रान्तः इति न तद्बलाद् वस्तुतत्त्वव्यवस्था' इति। यतो नास्य दुष्टकारणप्रभवत्वमस्ति, नापि बाधकप्रत्ययसद्भावः ततो मिथ्यात्वनिबन्धनाभावात् कतं भ्रान्तता ? तदुक्तम् (श्लो० वा० वन० श्लो० ४४-४७-४९)
उपलब्धि) का व्यापक है वृत्तिस्थापक निमित्त, उसकी अनुपलब्धि हेतु है जो व्याप्य का यानी वृत्ति का अभाव सिद्ध करता है।
यह एक दिशासंकेत है, इस के अनुसार अन्य भी सामान्यवादी न्यायवैशेषिक प्ररूपित सामान्यसाध हेतुओं का प्रतिक्षेप समझ लेना ।
* सामान्य की सिद्धि के लिये कुमारिलप्रयास
मीमांसादर्शन के विद्वान कुमारिल ने सामान्य की सिद्धि के लिये हेतुओं का प्रतिपादन किया है - अनेक प्रकार के गोपिण्डों में ‘गाय' ऐसी बुद्धि एक अनुगत गोत्व मूलक होती है क्योंकि वह गो - आभासी यानी गोविषयक ही होती है और वह समानाकार होती है जैसे एक गोपिण्ड के विषय में ( अनेक) गो बुद्धि । अथवा इस तरह प्रयोग है यह जो गोबुद्धि है वह शबलवर्णपिण्ड से उत्पन्न नहीं है अथवा गोपिण्ड से अतिरिक्त अर्थान्तर के आलम्बन से होने वाली है, क्योंकि शबलवर्णवाले गोपिण्ड के अभाव में भी होती है, जैसे घट को देख कर ‘पार्थिव है' ऐसी बुद्धि घट के बदले शराव के होने पर भी होती है ।
-
सामान्य में व्यापकत्व सिद्ध करने के लिये अन्य प्रमाण है यह जो 'गाय' बुद्धि है वह प्रत्येक व्यक्ति में समवेत पदार्थ को विषय करती है क्योंकि प्रत्येक पिण्ड में अखंडस्वरूप पदार्थाकार होती है, जैसे प्रत्येक व्यक्तिविषयक बुद्धि । सामान्य में एकत्व की सिद्धि के लिये यह साधक प्रमाण है – हालाँकि सामान्य अखण्डरूप से प्रत्येक व्यक्ति में समाविष्ट है फिर भी एक ही है क्योंकि एकाकारबुद्धि से गृहीत होता है, जैसे नञ्पदवाले अब्राह्मणादिपदों से युक्त वाक्यों में ब्राह्मणादि की व्यावृत्ति, हालाँकि ब्राह्मणों के अथवा वैश्यादि के अनेक होने पर भी एकाकारबुद्धि से ही उन की व्यावृत्ति गृहीत होती है और एक ही होती है। ऐसा कहना दुःशक्य है कि “भिन्न पिण्डों में अभिन्नाकार प्रतीति भ्रान्त है अतः उस के बल पर वस्तुतत्त्व की व्यवस्था शक्य नहीं' क्योंकि ऐसा कहने पर भ्रान्ति का मूल दिखाना पडेगा, क्या दूषित कारणों से जन्य होने से वह भ्रान्त होती है या पश्चाद्भावि बाधकप्रतीति के जरिये भ्रान्त होती * किन्तु उस में रहनेवाले गोत्व से उत्पन्न है यह गर्भितार्थ है।
+. यहाँ सिर्फ व्यापकत्व की सिद्धि ही अभिप्रेत है, एकत्व की सिद्धि के लिये अलग से नीचे अनुमान दिया जायेगा । उदाहरण में जैसे बुद्धि चाहे एक हो या अनेक लेकिन प्रत्येक व्यक्ति को व्यापकरूप से विषय करती है वैसे ही प्रत्येकव्यक्ति में समवेत पदार्थ को विषय करने से पक्षभूत गोबुद्धि भी व्यापक पदार्थ विषयक सिद्ध होगी ।
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Educationa International