Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 05
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 375
________________ ३५० श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् प्रतिपादकत्वेन शब्दादेरभ्युपगमात् । तस्मात् अनुगत-व्यावृत्तात्मकैकप्रतिभासजनकस्वभावं तथाभूतधर्मद्वयात्मकमेकं वस्तु अभ्युपगन्तव्यमन्यथा तथाभूतप्रतिभासस्य हेत्वभावतोऽभावप्रसक्तेः, अन्यादृशस्य च तस्याऽसंवेदनात्, सर्वप्रतिभासविरतिप्रसङ्ग इत्युक्तं प्राक्। न चानादितथाभूतविकल्पप्रसववासनातस्तथाभूतप्रतिभाससद्भावादयमदोषः, तस्या अपि अनन्तधर्मात्मकैकरूपताऽनभ्युपगमे तथाविधविज्ञानजनकत्वाऽयोगात् इत्यसकृदावेदितत्वात् । न च सर्व एवायं प्रमाण-प्रमेयव्यवहारो भ्रान्तिरूप इति वक्तव्यम् अपरस्याभ्रान्तरूपस्याभावात् । न च सुगतज्ञानमभ्रान्तम् तस्योत्पत्तिकारणाभावतोऽभावात् । न नैरात्म्यादिभावना तत्कारणम् तस्या मिथ्यारूपतयाऽमिथ्यारूपतज्ज्ञानहेतुत्वाऽयोगात् । न च तस्य सद्भावः सिद्धः अध्यक्षतोऽनधिगमात् । न चानुमानकिन्तु श्रोता का अपने क्षयोपशम (अर्थग्रहणशक्ति की तीव्र-मन्दता) के अनुसार, प्रामाणिक तौर पर कभी सामान्य की तो कभी विशेष की - मुख्य अथवा गौणरूप से प्रतीति होती है - तो यहाँ स्पष्ट ही अनेकान्तवाद में प्रवेश हो जायेगा। अनेकान्तवाद में वस्तु स्यात् (यानी कथंचित्) सामान्य-विशेषात्मक मानी गयी है। एवं शब्दादि माध्यम को सम्भवित सामान्य-विशेष सर्वधर्मात्मक वस्तु के प्रतिपादक होने पर प्रमाणभूत प्रतीति कराने वाला माना गया है। ‘स्यात्' पद समुचित अपेक्षा से किसी एक-दो धर्मों की मुख्यता के साथ गौण रूप से अन्य तद्गत सकल धर्मों का सूचन करने वाला है। जब कोई भी वाक्य ‘स्यात्' पद के सदुपयोगपूर्वक अस्तित्वादि का निरूपण करता है तब वस्तुगत सकल धर्मों का मुख्य-गौण भाव से प्रकाशन कर के प्रामाणिक बोध को उत्पन्न करता है। सारांश यह है कि प्रत्येक वस्तु को अनुगत-व्यावृत्त उभयस्वरूपानुविद्ध एक प्रतिभास उत्पन्न करने के स्वभाव से विशिष्ट, एवं अनुगत-व्यावृत्त उभय धर्मात्मक एक पदार्थरूप मानना न्याययुक्त है। यदि इस का इन्कार किया जायेगा, तो अनुगत-ब्यावृत्त स्वभाव प्रतिभास का जनक कोई तथाविध कारण न होने से प्रतिभास का ही अभाव प्रसक्त होगा। एकान्त एकस्वरूप वस्तु का संवेदन हो नहीं सकता। फलतः समग्र प्रतिभासों के उच्छेद का अनिष्ट प्रसक्त होगा। पहले यह तथ्य कई बार कहा जा चुका है। * वासना भी अनन्तधर्मात्मक एकवस्तुरूप स्वीकारार्ह * बौद्ध :- अनेकान्तवाद में प्रवेश की कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि अनादिकालीन प्रवाहागत विकल्पजनित वासना की महिमा से लोकप्रसिद्ध प्रतिभासों का उत्पादन होता ही रहेगा। जैन :- वासना यदि कोई पारमार्थिक चीज है तो वह भी अनन्तधर्मात्मक फिर भी एकात्मक है ऐसा मानना होगा। नहीं मानेंगे तो पूर्वकथितानुसार उस से लोकसिद्ध विज्ञानों का जन्म होना ही संगत नहीं होगा - यह बात अनेक दफा पहले कही जा चुकी है। अतः अनेकान्तवाद प्रवेश अनिवार्य है। ऐसा तो कह नहीं सकते कि 'यह पूरा प्रमाण-प्रमेय व्यवहार भ्रमणा है' - यदि यह भ्रमणा है तो दूसरा अभ्रान्त कौनसा व्यवहार है ? नहीं है। वास्तव में प्रमाण-प्रमेय व्यवहार नहीं किन्तु सुगत (बुद्ध) का ज्ञान ही भ्रमणा है। वह अभ्रान्त नहीं है क्योंकि सुगत को अभ्रान्त ज्ञान उत्पन्न करने वाला कोई कारण ही सम्भव नहीं है अतः सुगत में अभ्रान्त ज्ञान का अभाव कह सकते हैं। * सुगतज्ञान अभ्रान्त नहीं हो सकता * 'आत्मा है नहीं' ऐसी नैरात्म्य दर्शन की भावना सुगत के अभ्रान्त ज्ञान का कारण नहीं हो सकती, क्योंकि जो नैरात्म्य भावना स्वयं मिथ्या है वह अमिथ्यास्वरूप सुगत के अभ्रान्तज्ञान का कारण कैसे हो सकती है ? तदुपरांत, सुगत को अभ्रान्त ज्ञान होने में कोई प्रमाण न होने से उस का सत्त्व ही सिद्ध नहीं है। दूसरे लोगों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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