Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 05
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 380
________________ पञ्चमः खण्डः - का० ६५ इतियानत् अर्थसम्पादने = तद्विषयप्रमाण-नयस्वरूपावधारणे यतितव्यम् । अधीत्य सूत्रं श्रोतव्यम् श्रुत्वा च नयसर्वसंवादविनिश्चयपरिशुद्धं भावनीयम् अन्यथा आचार्या धीरहस्ता = अशिक्षितशास्त्रार्था अनभ्यस्तकर्मापि कर्मणि धृष्टतया व्याप्रियते येषां हस्तस्ते धीरहस्ता आचार्याश्च ते अशिक्षितधृष्टाश्च इति यावत्, हंदि गृह्यताम् ते तादृशा महाज्ञाम् = आप्तशासनं विगोपयन्ति विडम्बयन्ति इति यावत् । * वस्त्रादिवतां नैर्ग्रन्थ्यविरहः - दिगम्बरपूर्वपक्षः * तथा च दृश्यन्ते एव सर्वज्ञवचनं यथावस्थितमनवगच्छन्तो दिग्वाससो 'वस्त्र-पात्रादिधर्मोपकरणसमन्वितानां यतीनां नैर्ग्रन्थ्याभावाद् न सम्यगव्रतानि तीर्थकृद्भिः प्रतिपादितानी'ति प्रतिपादयन्तः। तथाहि - (१) यद् रागाद्यपचयनिमित्तनैर्ग्रन्थ्यविपक्षरूपं तत् तदुपचयहेतुः यथा विशिष्टशृङ्गारानुषक्ताङ्गनाङ्गसंगादिकम्, यथोक्तनैर्ग्रन्थ्यविपक्षभूतं च वस्त्रादिग्रहणं श्वेतवाससामिति । (२) तथा, यः स्वीकृतग्रन्थः सोऽध्वनि संचरन् नाभीष्ट स्थानप्राप्तिमान् भवति, यथा चौराद्युपद्रुते पथि संचरन् असहायः स्वीकृतग्रन्थोऽध्वगः, स्वीकृतग्रन्थश्च मोक्षाध्वनि संचरन् वस्त्राद्युपकरणवान् सितपट इति । (३) तथा यो यद्विनेयः स तल्लिङ्गानुकारी यथा चीवरादिलिङ्गधारिसुगतविनयो रक्तपटः, व्युत्सृष्टविसंवाद न हो इस ढंग से विशिष्ट निश्चय से परिशुद्ध अर्थविभावन करना चाहिये। इस सूत्र के उत्तरार्ध में कटाक्ष के रूप में 'धीरहस्त' शब्द का प्रयोग किया है – 'धीर' का मतलब यह है कि जिस कर्म में अपना कौशल न हो ऐसे कर्मो में भी धृष्टता से प्रवृत्ति करने वाला, जिस का हस्त ऐसा धीर है ऐसे आचार्य को यहाँ धीरहस्त कहा गया है। तात्पर्य यह है कि जिसने अर्थ का शिक्षण नहीं लिया फिर भी अनधिकृत चेष्टा करता है ऐसा धृष्ट आचार्य वास्तव में आप्त महापुरुषों की यानी पूर्वाचार्यो की या तीर्थंकर भगवान की आज्ञा की विडम्बना करते हैं - उस का उपहास कराते हैं।। * दिगम्बरों का पूर्वपक्षप्रारम्भ * सूत्रकारने जो निर्देश किया है उस की यथार्थ प्रतीति सर्वज्ञवचन को यथार्थ ढंग से न समझने वाले दिगम्बरों में की जा सकती हैं। वे कहते हैं कि वस्त्रपात्रादि धर्मोपकरण रखनेवाले यतियों में निर्ग्रन्थता न होने से उन के व्रत श्री तीर्थंकरों ने सही नहीं बताये, अर्थात् श्वेताम्बर यतियों के व्रत तीर्थंकरवचन के अनुसार सम्यग् नहीं है। यहाँ दिगम्बरों की ओर से तीन आभासिक अनुमान प्रयोग प्रस्तुत हैं - (१) रागादि की क्षीणता में निमित्तभूत निर्ग्रन्थता का जो प्रतिपक्षी है वह रागादि की पुष्टि का हेतु बनता है - जैसे श्रृंगारी महिला का अंग-आश्लेष; श्वेताम्बर यतियों का वस्त्रादिग्रहण भी निर्ग्रन्थता का प्रतिपक्षी है इस लिये रागादिपुष्टिकारक सिद्ध होते हैं। (२) जो ग्रन्थ (परिग्रह) धारण करता है वह मार्ग में चलता हुआ भी इष्ट गन्तव्य स्थान पर पहुँच नहीं पाता, जैसे : तस्करों के उपद्रव वाले मार्ग में धनादि ग्रन्थ धारण कर के चलनेवाला बेसहारा मुसाफिर, मुक्ति मार्ग में चलने वाला श्वेताम्बर यति भी वस्त्रादि उपकरणवाला होने से ग्रन्थधारक है। अतः उसे मोक्षप्राप्ति दुर्लभ है। (३) जो जिस का शिष्य (अनुयायी) होता है वह उस के लिङ्ग का धारक होता है, जैसे - वस्त्रादि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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