Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 05
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 381
________________ ३५६ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् त्यक्तदेहतीर्थकृद्विनेयाश्च भिक्षव इति । न च वस्त्राद्युपकरणाऽऽग्रहवत्सु प्रव्रज्यापरिणामः सम्भवी मिथ्यादृष्टिष्वपि परिग्रहाग्रहवत्सु अन्यथा तत्प्रसक्तेः। तथा च प्रयोगः – श्वेतभिक्षवो महाव्रतपरिणामवन्तो न भवन्ति न वा तत्फलसाधकाः, वस्त्र-पात्रादिपरिग्रहाग्रहयोगित्वात्, महारम्भगृहस्थवत् । न च भगवद्भिः वस्त्रग्रहणं यतीनामुपदिष्टम् तदागमे वस्त्रग्रहणप्रतिषेधस्य श्रवणात् । तथाहि - स्थितकल्पे 'आचेलक(कु)देसिय... (बृ०भा० गाथा १९७२)' इत्यादिसूत्रे चेलग्रहणप्रतिषेधः आचेलक्यपदेन कृत एव । तथा, परीषहेष्वचेलपरीषहस्य यतेरुपदेशात्, तथा ‘णगिणस्स वा वि मुण्डस्स' (दशवै० ६-६५) इत्याद्यागमे बहुशो यतेर्वस्त्रादिपरित्यागो भगवद्भिः प्रतिपादित इति । तत् प्रतिषिद्धं वस्त्रादिग्रहणमाचरन्तः परतीर्थिका इव कथं सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणमुक्तिमार्गसमन्विता श्वेताम्बराः ? इति । अत्र प्रतिविधीयते – यत्तावद् ‘रागाद्यपचयनिमित्त..." इत्यादिप्रयोगोपादानम् तत्र रागाद्यपचयलिङ्गधारक बुद्ध के रक्तवस्त्रधारी शिष्य ; यति भी देह का वोसिरण और त्याग करनेवाले तीर्थंकर के शिष्य होते हैं। अतः तीर्थंकर के (नग्नतारूप) लिंग के धारक होने चाहिये। (श्वेताम्बर यति तीर्थंकरलिंग के धारक न होने से वे तीर्थंकर के शिष्य नहीं है - यह तात्पर्य है।) * वस्त्रादि के आग्रह मे प्रव्रज्यापरिणामशून्यता * __जिन यतियों को वस्त्र-पात्रादि धर्मोपकरण रखने का आग्रह हो उन में प्रव्रज्या यानी संयमधर्म का परिणाम उदित नहीं हो सकता। यदि वस्त्रादि रखने पर भी चारित्र परिणाम का उदय हो सकता तो अपरिमित परिग्रह रखने के आग्रहवाले मिथ्यादृष्टियों में भी प्रव्रज्या का परिणाम प्रसक्त होगा। अनुमान प्रयोग :- 'श्वेताम्बर भिक्षुओं में महाव्रतों का परिणाम अथवा महाव्रतपालन के फल का उदय असम्भव है क्योंकि वे वस्त्र-पात्रादि परिग्रह से बोझिल हैं, जैसेः महापरिग्रह धारण करने वाला गृहस्थ ।' तात्पर्य, परिग्रहधारी श्वेताम्बर यतियों का महाव्रत या उन का फल असम्भव है। तीर्थंकर भगवानने यतियों का वस्त्रग्रहण के लिये किसी भी विधान का उपदेश नहीं किया बल्कि उन के ही आगमों में वस्त्रग्रहण का स्पष्ट प्रतिषेध सुनाई देता है। स्थितकल्पप्रतिपादक बृहत्कल्पादि शास्त्र में यतियों के कल्प यानी आचार “आचेलक्कुदेसिय....” इत्यादि गाथा में गिनाये गये हैं उस सूत्र में ‘आचेलक्य' शब्द से स्पष्ट ही चेल (=वस्त्र) के ग्रहण का निषेध किया गया है । उपरांत, साधुओं को २२ कष्टों को सहन करना चाहिये जिन को ‘परिषह' कहा जाता है, उन में 'अचेल' परिषह भी कहा गया है। तथा ‘‘णगिणस्स वा वि मुण्डस्स...." इत्यादि दशवैकालिक सूत्र में भगवानने यति के नग्न होने का निर्देश किया है। जब इतने सारे सूत्रों मे वस्त्रग्रहण का निषेध किया गया है तब अन्य मिथ्यादृष्टि दर्शनीयों की तरह वस्त्रादि का बेझिझक ग्रहण करनेवाले श्वेताम्बर मुनियों में सम्यग्दर्शन-सम्यक्ज्ञान-सम्यक्चारित्रस्वरूप मुक्तिमार्ग के समन्वय की आशा ही क्या रखना ?! * श्वेताम्बरों का उत्तरपक्ष * दिगम्बरमत के पूर्वपक्ष को अब सतर्क प्रत्युत्तर देते हुए व्याख्याकार कहते हैं - दिगम्बरप्रस्तुत तीन प्रयोग में से प्रथम प्रयोग में जो हेतु है रागादि अपचय के निमित्तभूत निर्ग्रन्थता का विपक्षत्व, इस में रागादि अपचय के निमित्तभूत जो निर्ग्रन्थता है वह देशनिर्ग्रन्थता विवक्षित है या Bसम्पूर्ण म. णगिणस्स वा वि मुंडस्स दीह-रोम-नहंसिणो। मेहुणा उवसंतस्स किं विभूसाइ कारिअं ?।। (द०वै० ६-६५) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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