Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 05
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 404
________________ पञ्चमः खण्डः - का० ६५ ३७९ अनिष्टापत्तिः। न च योगिन्यशेषकर्मक्षयनिबन्धनमध्यवसानं जनयदपि नरकप्राप्तिनिबन्धनकर्मबीजभूतमध्यवसानं नरकप्राप्तिलक्षणं स्वकार्यं न जनयतीति वाच्यम् अविकलकारणस्यावश्यंतया स्वकार्यनिर्वर्तकत्वात् अन्यथाऽविकलकारणत्वायोगात् । न च यदेव तथाभूतकर्मनिवर्त्तनसमर्थं तदेव तत्क्षयहेत्वध्यवसाननिबन्धनं भवति, भावाभावयोरेकस्मिन्नेकदा विरोधात्, तन्निवर्त्तकस्य हेतोः स्वभावान्तरमप्राप्नुवतस्तनिवर्तकत्वविरोधात् । न हि यदेव यदैवाङ्गुलीद्रव्यस्य ऋजुत्वोत्पादकम् तदेव तदैव तस्य विनाशकं सम्भवति एकनिमित्तयोरेकदा भावाभावयोर्विरोधात् । नापि तत् तस्य व्यापकम् येन ततस्तनिवर्त्तमानं तदप्यादाय निवर्तेत । व्यापकत्वे वा यत्राशेषकर्मक्षयनिबन्धनाध्यवसायसद्भावस्तत्र व्यापकस्यावश्यंभावित्वात् अन्यथा तस्य तद्व्यापकत्वाऽयोगात् – योगिनस्तदध्यवसायवतोऽधः सप्तमनरकप्राप्तिप्रसङ्गोऽनिष्टः तदवस्थ एव स्यात् । न च यत्र क्लिष्टतराध्यवसायसद्भावस्तत्रातिशुभतराध्यवसायेन भाव्यमिति प्रतिबन्धसम्भवः तन्दुलमत्स्येन व्यभिचारात् । न च मनुष्यजातियोगित्वे सति अव्यभिचारः, उत्तमसंहननेन चारित्रप्राप्तिअध्यवसाय है। गी में उस का कारणभूत अधः सप्तमनरकपृथ्वीप्राप्ति के अवन्ध्यकारणरूप बीजात्मक अशुभ अध्यवसाय भी अवश्य होगा; उपरांत, कार्य अपने अवन्ध्य कारण का व्यभिचारि नहीं होता अतः उस योगी को अवश्यमेव तथाविध अशुभ अध्यवसाय के फलस्वरूप सप्तमनरक की प्राप्ति हो कर रहेगी। (वह योगी मोक्ष में जायेगा या सप्तम नरक में यह प्रश्न खडा होगा!) ऐसा नहीं कहना कि उस योगी में वह अशुभ अध्यवसाय मुक्तिसाधक अध्यवसाय का कारण होने से मुक्ति का सर्जन करेगा, नरकप्राप्तिरूप अपना कार्य नहीं करायेगा। - ऐसा कहना व्यर्थ है. क्योंकि नरक में ले जानेवाले कर्मो के बीजभत अध्यवसाय नरकप्राप्ति का परिपर्ण कारण होने से अपने कार्यस्वरूप नरकप्राप्ति को अवश्य करावेगा ही। अन्यथा, उसे नरक का परिपूर्ण कारण ही नहीं कह सकेंगे। यह भी विचित्र कथा है कि जो सप्तमनरकप्रापक कर्मों के निर्माण में समर्थ अध्यवसाय है वह उन्हीं कर्मों के विनाशकारक अध्यवसाय का भी हेतु बन सके। ऐसा तो कभी हो नहीं सकता। एक काल में एक ही वस्तु भाव और उस के विरोधी अभाव दोनों का सर्जन करे यह विरोधग्रस्त होने से सम्भव नहीं है। जब तक नरकप्रापक अध्यवसाय अपने स्वभाव में परिवर्तन कर के कर्मक्षयकारकअध्यवसायजनक स्वभाव को आत्मसात् न कर ले तब तक उसी एक अध्यवसाय से सप्तमनरकयोग्य कर्मो का सर्जन एवं उन कर्मों के विसर्जन करानेवाले अध्यवसाय का भी सर्जन करे यह सम्भव नहीं है। उदा० जो कारण जिस समय में अंगुलीद्रव्य में सरलता का आधान करनेवाला है वही कारण उस सरलता का उसी काल में विनाशक हो (या उस विनाशक निमित्त का भी सर्जक हो) यह कभी नहीं हो सकता। परस्पर विरोधी भाव और अभाव ये दोनों का एक ही काल में समान निमित्त हो नहीं सकता, क्योंकि विरोध खडा होगा। वह अशुभ अध्यवसाय उस सकल कर्मक्षयकारक अध्यवसाय का व्यापक भी नहीं है जिस से कि नरकप्रापक अध्यवसाय की निवृत्ति से मुक्तिसाधक अध्यवसाय की निवृत्ति दिखायी जा सके। यदि उसे व्यापक मानेंगे तो मुक्तिसाधक अध्यवसाय को व्याप्य मानना होगा; व्याप्य होने पर व्यापक अवश्य वहाँ होता है अतः कर्मक्षयकारक अध्यवसाय वाले योगी पुरुष में सप्तमनरकप्रयोजककर्मजनक अध्यवसाय भी अवश्य रहेगा। यदि नहीं रहेगा तो उसे व्यापक ही नहीं कहा जायेगा। फलतः उस योगी को सप्तमनरक प्राप्ति का अनिष्ट अनिच्छया भी प्रसक्त होगा. यह दोष कारणपक्ष की तरह तदवस्थ ही रहेगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442