Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 05
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 415
________________ ३९० श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् गमात् 'तं सव्वणयविसुद्धं जं चरणगुणट्ठिओ साहू ।। (आ०नि०१०२) इत्याद्यागमप्रामाण्यात् । अगीतार्थस्य तु स्वतन्त्रचरणकरणप्रवृत्तेः व्रताद्यनुष्ठानस्य वैफल्यमभ्युपगम्यत एव - 'गीयत्थो य विहारो, बीओ गीयत्थमीसओ भणिओ।' (ओ०नि०१२१) इत्याद्यागमप्रामाण्यात् ।।६७॥ अत्र च सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानादभेदाद् ज्ञान-क्रिययोरन्यतरविकलयो शेषकर्मक्षयलक्षणफलनिवर्तकत्वं सम्भवतीति प्रतिपादयन्नाह - णाणं किरियारहियं किरियामेत्तं च दो वि एगंता। असमत्था दाएउँ जम्म-मरणदुक्ख मा भाई ।।६८॥ ज्ञायते यथावद् जीवादितत्त्वमनेनेति ज्ञानम्, क्रियते इति क्रिया = यथोक्तनुष्ठानम् तया रहितम् 'जन्म-मरणदुःखेभ्यो मा भैषीः' इति दर्शयितुं दातुं वा असमर्थम् । न हि ज्ञानमात्रेणैव पुरुषो भयेभ्यो मुच्यते क्रियारहितत्वात्, दृष्टप्रदीपनक-पलायनमार्गपङ्गुवत् । क्रियमानं वा ज्ञानरहितम् न 'तेभ्यो मा भैषीः' इति दर्शयितुं दातुं वा समर्थम् – न हि क्रियामात्रात् पुरुषो भयेभ्यो मुच्यते सज्ज्ञानविकलत्वात् यही मत है कि गुरु-आज्ञासापेक्ष प्रवृत्ति करने वाला चरण एवं गुण (ज्ञान) उभय में संतुलनपूर्वक अचल रहने वाला साधु सर्वनयविशुद्ध यानी सभी नयों को मान्य होता है। आवश्यकनियुक्ति में कहा है - 'चरण और गुण में रहनेवाला साधु सर्वनयविशुद्ध है।' इस आगमप्रमाण से उक्त गाथा का अर्थ समर्थित होता है। स्वच्छंद ढंग से चरण-करण में प्रवृत्त होने वाले अगीतार्थ यति का व्रतादि अनुष्ठान निष्फल मानने में कोई हरकत नहीं है, क्योंकि ओघनियुक्तिकार आदि शास्त्रकारोंने कहा है कि - ‘स्वयं गीतार्थ हो कर शिष्यपरिवार के साथ विहार करे अथवा स्वयं अगीतार्थ हो तो गीतार्थ की निश्रा में रह कर विहार करे, इन दो प्रकार के विहार की अनुज्ञा है। (तीसरे स्वच्छंद एकाकी विहार की जिनमत में किसी को भी अनुज्ञा नहीं है)।' - इस अर्थवाले 'गीयत्थो०' इत्यादि आगमप्रमाण से, अगीतार्थ स्वच्छंद विहारी के व्रतादि को निष्फल ही मानना चाहिये ।।६७।। * परस्परशून्य ज्ञान-क्रिया से दुःखभयनिवारण अशक्य * यदि प्रश्न हो कि चरण और गुण (ज्ञान) में अवस्थित को साधु कहा गया तो सम्यग्दर्शन को क्यों छोड दिया ? तो उत्तर यह है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में अभेद है। एक दूसरे से शून्य ज्ञान और क्रिया सकल कर्मो के क्षयस्वरूप फल का निर्माण कर नहीं सकते - इस तथ्य को सूत्रकार अब ६८ वीं गाथा से कहते हैं - गाथार्थ :- क्रियाशून्यज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया ये दोनों ही एकान्त, जीव को यह बताने में असमर्थ है कि 'जन्म और मृत्यु के दुःख का भय मत रखना।' व्याख्यार्थ :- ज्ञान का यह व्युत्पत्ति-अर्थ है 'जिस के द्वारा जीव-अजीव आदि तत्त्वों का यथार्थ बोध हो वह ज्ञान है।' जो की जाती है उसे क्रिया कहा जाता है, अर्थात् शास्त्रोक्त आचार का पालन यह क्रिया है। क्रिया से रहित ज्ञानमात्र जीव को यह आश्वासन देने में या बताने में समर्थ नहीं होता कि 'तू जन्म-मरण के दुःखों से डरना नहीं' । ज्ञानमात्र से पुरुष भयमुक्त नहीं हो जाता क्योंकि उस में भयमोचक क्रिया की कमी है। जैसे पंगु पुरुष अटवी में दावानल को देखता है उस से भागने के लिये सही रास्ते को भी जानता है किन्तु पलायनक्रिया न कर सकने के कारण वह दावानल के भय से मुक्त नहीं होता । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442