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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
तथा च प्रयोगः
वर्णितनैर्ग्रन्थ्यविपक्षभूतत्वाऽसिद्धेः साधनविकलता । न च यथोक्ताङ्गनासंगादिरपि उपसर्ग - सहिष्णोर्वैराग्यभावनावशीकृतचेतसो योगिनो रागाद्युपचयहेतुः, भरतेश्वरप्रभृतिषु तस्य तत्प्रक्षयहेतुत्वेन शास्त्रे श्रवणात्, 'जे जतिआ उ हेऊ भवस्स... ' ( ) इत्याद्यागमप्रामाण्यात् । रागाद्यपचयनिमित्तनैर्ग्रन्थ्यविपक्षभूतत्वं च वस्त्राद्युपादानस्यासिद्धम् धर्मोपकरणत्वेन तस्य ग्रन्थत्वानुपपत्तेः । अर्हन्मार्गोक्तक्रियाव्यवस्थितानां सम्यग्दर्शनादिसंपद्युक्तानां यतीनां वस्त्रादिकं न ग्रन्थः धर्मोपकरणत्वात्, प्रमार्जनादिनिमित्तोपादीयमानपिञ्छिकादिवत्; यत् तु कर्मबन्धहेतुतया ग्रन्थत्वेन प्रसिद्धं तत् धर्मोपकरणमपि न भवति यथा लुब्धकादेर्मृगादिबन्धनिमित्तं वागुरादिकम् । न च धर्मोपकरणत्वं वस्त्रादेरसिद्धम् वस्त्राद्यन्तरेण यतीनामुक्तलक्षणानामर्हत्प्रणीताऽब्रह्मपरित्यागादिलक्षणस्य व्रतसमूहस्य सर्वथा संरक्षणहेतुत्वानुपपत्तेः । यच्च व्रतसंरक्षणहेतुस्तद् धर्मोपकरणत्वेन परस्यापि सिद्धम् यथा पिच्छिकादि, वैधर्म्येण वागुरादि । न च पिच्छिकादेरभिष्वङ्गहेतुत्वानुपपत्तेर्धर्मोपकरणत्वं सम्यग्दर्शनादि के पुष्टिकारकत्व से व्याप्त हो ऐसा वस्त्रादिग्रहण में ही देखा जाता है, अतः विपक्षभूतत्व हेतु विरुद्धसाधक होने से विरोधदोषग्रस्त सिद्ध होता है ।
तथा, दिगम्बरने अपने प्रथम प्रयोग में जो विशिष्ट श्रृंगार अलंकृतनारीसंग का दृष्टान्त पेश किया है उस में, दिगम्बरप्रतिपादित 'वस्त्रादिअभावस्वरूप निर्ग्रन्थता का विपक्षभूतत्व' यह हेतु भी असिद्ध है क्योंकि तथाविधनारीसंग वस्त्रादिअभाव का विपक्षभूत नहीं है । एवं यह भी सोचना जरुरी है कि स्फारश्रृंगारअलंकृतनारीसंग भी उन योगिपुरुषों के लिये रागादिपुष्टिकारक नहीं होता जो उपसर्गो को सहन करने में कठोर होते हैं और जिन का चित्त निरंतर वैराग्यभावना से प्लावित रहता है। शास्त्र में सुन पडता है कि भरतेश्वर आदि चक्रवर्त्तीयों को हजारों नारीयों का संग भी रागादि उपचय कारक नहीं हुआ, अपि तु इतना होते हुए भी विषयों के प्रति वैराग्यभावना और एकत्व भावना के पुष्ट बन जाने से उलटा रागादि का क्षय फलित हुआ । आगम शास्त्र में भी स्पष्ट कहा है कि जो जितने संसारवृद्धि के हेतु हैं वे ही विपरीतरूप से उतने मोक्ष के हेतु है । तथा, रागादिह्रासकारक निर्ग्रन्थता ग्रन्थाभावरूप लिया जाय तो वस्त्रादिग्रहण में तथाविध निर्ग्रन्थता का विपक्षभूतत्व सिद्ध नहीं होगा (यानी हेतु पक्ष में असिद्ध है । ) क्योंकि वस्त्रादि धर्मोपकरणस्वरूप होने से उस में ग्रन्थत्व ही नहीं घटेगा ।
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* वस्त्रादि ग्रन्थरूप नहीं है
अनुमानसिद्धि *
वस्त्रादि में ग्रन्थत्वाभावसाधक अनुमान प्रयोग इस प्रकार है श्री तीर्थंकरप्रणीतमार्ग में विहित किये गये क्रियाकलाप में व्यवस्थित रहनेवाले और सम्यग्दर्शनादि की सम्पदा से अलंकृत यतियों के लिये वस्त्रादि ग्रन्थस्वरूप नहीं है क्योंकि उन के लिये वस्त्रादि धर्मोपकरणरूप है; जैसे प्रमार्जनादि के लिये दिगम्बरयतिगृहीत पछी (मयूरपीच्छ) आदि । तथा जो कर्मबन्ध का हेतु होने से ग्रन्थस्वरूप प्रसिद्ध होता है वह धर्मोपकरणरूप नहीं होता, जैसे पशु आदि को फँसाने वाली शिकारीयों की जाल आदि । वस्त्रादि धर्मोपकरणस्वरूप है इस में कोई संदेह नहीं है, असहिष्णु साधुओं को अर्हत् प्रभु प्रदर्शित अब्रह्मत्यागादिस्वरूप व्रतसमुदाय का संरक्षण करने में वस्त्रादि अत्यन्त उपयोगी बनते हैं, वस्त्रादि के विना वे यति व्रतसमुदाय का संरक्षण नहीं कर सकते । दिगम्बर मत में भी यह तथ्य स्वीकृत है कि जो व्रतसंरक्षण में उपयोगी हो वह धर्मोपकरणस्वरूप होता है जैसे पछी आदि। उस से उलटा, जो व्रतसंरक्षण में विरोधी हो वह धर्मोपकरण नहीं होता जैसे पशु आदि को फँसानेवाली जाल।
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