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पञ्चमः खण्डः का० ६०
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व्यवस्थाप्येत ? त्रैलोक्यस्य चैकक्षणवर्त्तिता प्रसज्येत । ' यदनन्तरं यद् भवति तत् तस्य कार्यं इतरत् कारणम्' इति व्यवस्थायां कारणाभिमते वस्तुनि असत्येव भवतस्तदनन्तरभावित्वस्य दुर्घटत्वात्, चिरतरविनष्टादपि च तस्य भावो भवेत् तदभावाऽविशेषात् । न चानन्तरस्यापि कार्योत्पत्तिकालमप्राप्य विनाशमनुभवतश्चिरातीतस्येव कारणता यतोऽर्थक्रिया क्षणक्षये न विरुध्येत । प्राक्कालभावित्वेन कारणत्वे सर्वं प्रति सर्वस्य कारणता प्रसज्येत सर्ववस्तुक्षणानां विवक्षितकार्यं प्रति प्राग्भावित्वाविशेषात् । तथा च स्वपरसंतानव्यवस्थाऽपि अनुपपन्नैव स्यात् ।
न च सादृश्यात् तद्व्यवस्था, सर्वथा सादृश्ये कार्यस्य कारणरूपताप्रसक्तेरेकक्षणमात्रं सन्तानः प्रसज्येत। कथंचित् सादृश्येऽनेकान्तवादप्रसक्तिः । न च सादृश्यं भवदभिप्रायेणाऽस्ति सर्वत्र वैलक्षण्या - विशेषात्, अन्यथा स्वकृतान्तप्रकोपात् । न च क्षणिकैकान्तवादिनोऽन्वय- व्यतिरेकप्रतिपत्तिः सम्भवतीति साध्य-साधनयोस्त्रिकालविषययोः साकल्येन व्याप्तेरसिद्धेः 'यत् सत् तत् सर्वं क्षणिकम् संश्च शब्दः ' इत्याद्यनुमानप्रवृत्तिः कथं भवेत् ? अकारणस्य च प्रमाणविषयत्वानभ्युपगमे साध्य-साधनयोस्त्रिकालक्षण में आ जायेगा, वह भी वैसा ही होने से दूसरी क्षण में, दूसरी क्षण भी वैसी ही होने से प्रथम क्षणवृत्ति हो जायेगी ।) कारण- कार्य का लक्षण ऐसा बनाया जाय कि 'जिस भाव के बाद जो उत्पन्न हो वह कार्य, और पूर्वक्षणवाला भाव कारण ।' ऐसी व्यवस्था की जाय तो, जिस क्षण में कारण असत् है उस क्षण में कार्य होगा, तब वह कार्य उसी असत् कारण के बाद हुआ है यह विश्वास कैसे होगा ? यानी यह बात दुर्घट हो जायेगी क्योंकि दीर्घकाल के पहले जो नष्ट हो गया है उस से भी वह कार्य उत्पन्न होने का माना जा सकता है, क्योंकि कार्य क्षण में तो वह भी समान ढंग से असत् है । यदि वह दीर्घकाल पूर्व नष्ट हो चुका भाव कार्योत्पत्ति के पहले ही विनष्ट हो जाने से कारण नहीं बनता तो अचिरनष्ट क्षण भी कार्योत्पत्ति के पूर्व ही नष्ट हो जाने से कारण नहीं बन सकेगा । अतः क्षणक्षयवाद में अर्थक्रिया का विरोध स्पष्ट है । 'पूर्वकाल में विद्यमान हो वह (उत्तरकालभावि कार्य का ऐसा कुछ नहीं) कारण' इतने को ही कारण का लक्षण माना जाय तो विवक्षित प्रतिनियत किसी एक क्षण उत्पन्न कार्य के प्रति पूर्वकाल में हो गये अनन्त भावों को कारण मान लेना पडेगा, इतना ही नहीं प्रत्येक क्षण किसी न किसी क्षण की पूर्व भावि और किसी की उतर काल भावि होने से सब कार्यो के प्रति सभी भावों की कारणता प्रसक्त होगी। नतीजा यह होगा कि अश्वक्षण गोक्षण का कारण और उस से उलटा भी हो जाने से 'यह स्वसन्तान और यह पर सन्तान' ऐसी भेदव्यवस्था भी समाप्त हो जायेगी, क्योंकि प्रत्येक सन्तान में प्रत्येक सन्तान के क्षण अन्तः प्रविष्ट हो जायेंगे ।
में
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* सादृश्य के आधार पर सन्तानव्यवस्था दुष्कर
यदि यह कहा जाय कि 'अश्वक्षणों में अश्व क्षणों का सादृश्य होता है, गो- क्षणों में गोक्षणों का, इस प्रकार ‘सादृश्य की महिमा से स्वसन्तान और सादृश्य का अभाव होने पर परसन्तान' ऐसी व्यवस्था हो सकती है। ' तो यह अनुचित विधान है क्योंकि यहाँ दो विकल्प हैं सर्वथा और कथंचित् । यदि एक अश्वक्षण का दूसरे अश्वक्षण में सर्वथा सादृश्य होने का मानेंगे तो कार्य कारणस्वरूपापन्न ही हो जायेगा, क्योंकि सर्वथा सादृश्य तो स्व का स्व में ही होता है, फलतः सारा सन्तान एकक्षणमय ही हो बैठेगा। यदि कथंचित् सादृश्य मानेंगे तो अनेकान्तवाद का जयजयकार !
वस्तुतः बौद्धमत में सादृश्य जैसी कोई चीज ही नहीं है, क्योंकि उस के मत में भेदभाव का ही साम्राज्य है, प्रत्येक स्वलक्षण अन्य से सर्वथा भिन्न होता है। यदि उन में कथंचित् थोडा भी सादृश्य मानेंगे तो अन्वय प्रसक्त होने से अनेकक्षणस्थायित्व प्राप्त होगा और क्षणिकवादसिद्धान्त कुपित हो बैठेगा |
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