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पञ्चमः खण्डः - का० ६३
३११ चेतनमचेतनं वा सहायभूतं शरणतां प्रतिपद्यते.. इत्यादि भवसंक्रान्तिदोषपर्यालोचनं भवविचयम् ।
(८) भवन-नग-सरित्-समुद्र-भूरुहादयः पृथिवीव्यवस्थिताः। साऽपि धनोदधि-घनवात-तनुवातप्रतिष्ठा। तेऽपि आकाशप्रतिष्ठाः। तदपि स्वात्मप्रतिष्ठम्। तत्राधोमुखमल्लकसंस्थानं वर्णयन्ति अधोलोकम् इत्यादि च संस्थानानुचिन्तनं संस्थानविचयम् ।।
(९) अतीन्द्रियत्वाद् हेतूदाहरणादिसद्भावेऽपि बुद्ध्यतिशय-शक्तिविकलैः परलोक-बन्ध-मोक्षधर्माधर्मादिभावेषु अत्यन्तदुःखबोधेषु आप्तप्रामाण्यात् तद्विषयं तद्वचनं तथैवेत्याज्ञाविचयम् ।
(१०) आगमविषयविप्रतिपत्तौ तर्कानुसारिबुद्धेः पुंसः स्याद्वादप्ररूपकागमस्य कषच्छेदतापशुद्धितः समाश्रयणीयत्वगुणानुचिन्तनं हेतुविचयम्।।
एतच्च सर्व धर्मध्यानम् श्रेयोहेतुत्वात् । एतच्च संवररूपमशुभास्रवप्रत्यनीकत्वात् 'आस्रवनिरोधः बेचारा जीव अपने किये हुए दुष्कर्मों के फलों को भोगता रहता है। क्या चेतन, क्या जड, कोई भी वस्तु कटुफल भोग के समय में उस को सहायता नहीं देती। तब जीव भी अपने को इस भव में अशरण महसूस करता है।... इस प्रकार भवभ्रमण के भयंकर अनिष्टों का चिन्तन-मनन करना यह भवविचय धर्मध्यान है।
* संस्थान - आज्ञा- हेतुविचय धर्मध्यान * (८) संस्थानविचय :- विश्व के संस्थान-आकार और उस की संरचना-संचालन आदि का चिन्तन करना यह संस्थानविचय धर्मध्यान है। जैसे, राजाओं के भवन, मेरुगिरि आदि पर्वत, गंगा आदि नदियाँ, लवणादि समुद्र एवं वृक्षादि छोटे-बड़े पिण्ड पृथ्वी पर अवस्थित हैं, पृथ्वी के अधोदेश में घनोदधि-घनवात और तनुवात ऐसे एक जलमय और दो वायुमय प्रस्तर हैं जिन के ऊपर पृथ्वी अवस्थित हैं। घनोदधि आदि प्रस्तर भी खुले आकाश में ही प्रतिष्ठित हैं और आकाश स्वयं निराधार – निरावलम्ब स्वमात्रप्रतिष्ठित है। अधोलोक का आकार अधोमुख तैलपात्र (अथवा छत्र) जैसा बताया गया है... इत्यादि चिन्तन इस में किया जाता है।
(९) आज्ञाविचय :- परलोक, कर्मबन्ध, मोक्ष, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकायादि द्रव्य अथवा पुण्य-पापादि तत्त्व अतीन्द्रिय हैं। सूक्ष्मबुद्धिवाले हेतुप्रयोग और उदाहरणादि के सद्भाव से उस की यथार्थ जानकारी प्राप्त कर सकते हैं; किन्तु ये पदार्थ अतीन्द्रिय है, इस लिये सातिशयबुद्धिशक्ति से विकल मनुष्यों के लिये अत्यन्त दुर्बोध हैं। फिर भी उन के उपदेष्टा वीतराग-सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान होने से, अत्यन्त विश्वसनीय है इसलिये उन पदाथों थों का निरूपण करनेवाले उन के शास्त्रवचन भी अत्यन्त विश्वासपात्र हैं - इस प्रकार पुनः पुनः चिन्तनमनन करना, इसे आज्ञाविचय धर्मध्यान कहा गया है।
(१०) हेतुविचय :- जो लोग 'बाबावाक्यं प्रमाणम्' मान कर नहीं चलते किन्तु तत्त्वों को तर्क की कसौटी से कस कर विश्वास करनेवाले होते हैं, उन को जब यह समस्या हो जाती है कि परस्पर विरुद्ध प्रतिपादन करने वाले विविध सम्प्रदायों के आगमशास्त्रों में किस को प्रमाण मानना ? तब प्रमाणभूत शास्त्र का निर्णय करने के लिये कष-छेद और ताप ये तीन कसौटियाँ दिखा कर स्याद्वादप्रतिपादक आगम का प्रामाण्य-विश्वासपात्रता-शरण्यता को दिखाया जाता है - यह हेतुविचय धर्मध्यान है। जैसे सुवर्ण की परख कष-छेद और ताप से की जाती है वैसे यहाँ शास्त्रों के लिये भी तीन कसौटी है। १ उचित विधि-निषेध का प्रतिपादन, २ उन के पोषक आचारपालन का प्रतिपादन, ३ उस शास्त्र के दर्शाये हुए आत्मादि तत्त्वों के साथ उन विधि-निषेधों और आचारों की संगति, इन तीन कसौटी से शास्त्र की परख की जाती है।
ये १० ध्यानभेद आत्महितकारक होने से धर्मध्यान एवं संवरात्मक ही हैं, क्योंकि संवर यह अशुभ आस्रव
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