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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् अपरे तु मन्यन्ते धात्वर्थमात्रे फलपर्यालोचनानिरपेक्षो विधिः पुरुषं प्रेरयति स तथाभूतो लिडादिप्रत्ययाभिधेयः इति । ___ सर्वे तेऽयुक्तवादिनः। यतो विधि लब्धसत्ताकः पुरुषं प्रेरयति, अविद्यमानस्य गगनकुसुमादेरिव प्रेरकत्वाऽसम्भवात् सम्भवे वा विद्यमानताप्रसक्तेः । न चाऽविद्यमानविध्यर्थं प्रेरणा प्रतिपादयितुं प्रभवति, प्रतिपादने वाऽविद्यमानविषयत्वेन केशोण्डुकादिज्ञानवद् न प्रमाणं भवेत् । न चाऽविद्यमानेन सह लिट्प्रत्ययस्य सम्बन्धः तदभावात्तस्याऽवाचकत्वं स्यात् । अथ लब्धसत्ताको विधिः प्रेरकस्तदा त्रिकालशून्यता तस्य व्यावर्तेत, वर्तमानकालताप्राप्तेः लिट्प्रत्ययगम्यता च न स्यात् । साम्प्रतकाले च तस्मिन् प्रत्यक्षादेरप्यवतारात् चोदनैव धर्मे प्रमाणम् प्रमाणमेव चोदना इति न वक्तव्यं स्यात् प्रत्यक्षादेस्तत्र प्रवृत्ताववधारणद्वयस्याप्यनुपपत्तेः । न च सामान्याभिधायि पदं विशेषाभिधायि युक्तम् औत्पत्तिकश्च शब्दस्य सम्बन्धः सामान्यलक्षणेनार्थेण न विशेषेण । न चासम्बद्धपदं विशेषे विज्ञानं विधातुं समर्थम् । न चानवगतो विधिः प्रवर्तको युक्तः । की प्रवर्तकता अक्षुण्ण है। ___दूसरे पंडितों का मत यह है कि सिर्फ धात्वर्थ के बारे में फलपर्यालोचननिरपेक्ष विधि ही पुरुष का प्रेरक है और ऐसा विधि लिट् आदि प्रत्ययों का वाच्यार्थ है। ____ इन दोनों पंडितों के मत के बारे में व्याख्यानकार कहते हैं -
* विधि के सत्त्व-असत्त्व पक्ष में प्रेरकता की दुर्घटता * ये सब अयुक्तवादी हैं कारण यह है कि प्रेरणा करनेवाला विधि ही जब स्वरूपसत्ता से वंचित है वह पुरुष को प्रेरणा नहीं कर सकता। जो विद्यमान नहीं यानी असत् है वह गगनपुष्प की तरह प्रेरक नहीं हो सकता, यदि प्रेरक बनेगा तो असत् नहीं सत् होगा, अर्थात् विद्यमान होगा। तथा, जिस का विधिरूप अर्थ असत् है वह पद प्रेरणा का प्रतिपादन करने में भी सक्षम नहीं हो सकता। कदाचित् वैसा पद भी प्रेरणाकारक माना जाय तो असत् केशोण्डुक आदि विषयक मिथ्याज्ञान की तरह वह पद भी अविद्यमान-विषयस्पर्शी होने से अप्रमाण ही माना जायेगा। लिट् प्रत्यय का वाच्यतासम्बन्ध भी विद्यमान के साथ हो सकता है न कि अविद्यमान के साथ, विधि तो अविद्यमान होने से वह उस का वाच्यार्थ हो नहीं सकता, फलतः वाच्यार्थ न होने से लिट्प्रत्यय में वाचकता का लोप हो जायेगा।
यदि सत्ताविशिष्ट विधि को प्रेरक माने तो विधि में जो कालत्रयशून्यता प्रदर्शित किया है उस का लोप हो जायेगा और विद्यमान अर्थात् वर्त्तमानकालीन हो जाने से विधि लिट्प्रत्यय का वाच्य ही नहीं हो सकेगा। तथा वर्तमानकालीन विधि के विषय में तो प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति भी शक्य होने से आप यह नहीं कह सकेंगे कि 'चोदना ही एक मात्र धर्म के बारे में प्रमाणभूत है' और 'चोदना प्रमाणभूत ही है। जब धर्म के विषय में प्रत्यक्ष प्रमाण की प्रवृत्ति शक्य होगी तो इन दोनों में से एक भी विधान भारपूर्वक नहीं कहा जा सकेगा। दूसरी बात यह है कि मीमांसक मत में पद का वाच्यार्थ सामान्य ही होता है न कि विशेष । अतः शब्द
पत्तिक सम्बन्ध भी विशेष के साथ नहीं सामान्यात्मक पदार्थ के साथ ही होगा। जब विधिस्वरूप विशेष पदार्थ के साथ कोई पद सम्बद्ध ही नहीं है तो वह पद विधिविशेष का प्रतिपादन कैसे कर सकता है ? तथा, पद से अप्रतिपादित विधि प्रवर्तक हो यह युक्त नहीं है।
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