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पञ्चमः खण्डः - का० ६३ दशविधम् – तद्यथा अपायोपायजीवाजीवविपाकविरागभवसंस्थानाज्ञाहेतुविचयानि चेति । लोकसंसारविचययोः संस्थान-भव-विचययोरन्तर्भावान्नोद्दिष्टदशभेदेभ्यः पृथगभिधानम् ।
(१) तत्राऽपाये विचयो = विचारो यस्मिन् तदपायविचयम् । एवमन्यत्रापि योज्यम् । दुष्टमनोवाक्कायव्यापारविशेषाणामपायः कथं नु नाम स्यात् इत्येवंभूतः संकल्पप्रबन्धो दोषपरिवर्जनस्य कुशलप्रवृत्तित्वादपायविचयम् । (२) तेषामेव कुशलानां स्वीकरणमुपायः, ‘स कथं नु मे स्यात्' इति संकल्पप्रबन्धः उपायविचयम्। (३) असंख्येयप्रदेशात्मकसाकारानाकारोपयोगलक्षणाऽनादिस्वकृतकर्मफलोपभोगित्वादिजीवस्वरूपानुचिन्तनं जीवविचयम् । (४) धर्माधर्माकाश-काल-पुद्गलानामनन्तपर्यायात्मकानामजीवानामनुचिन्तनमजीवविचयम् । (५) मूलोत्तरप्रकृतिभेदभिन्नस्य पद्गलात्मकस्य मधुरकटुफलस्य कर्मणः संसारिसत्त्वविषयविपाकविशेषानुचिन्तनं विपाकविचयम् । धर्मध्यान के ही बाह्य भेद हैं। ध्याता के लिये ऐसा धर्मध्यान का परिणाम स्वसंवेदनसिद्ध ही रहता है। दूसरों के लिये अनुमानगोचर होता है। ___ श्री श्वेताम्बरशिरोमणि वाचकवर्य उमास्वाति आचार्यने तत्त्वार्थधिगमसूत्र में संक्षेप से आध्यात्मिक धर्मध्यान के चार भेद गिनायें हैं। अन्य शास्त्रों में १० भेद भी कहे हैं जिन में चार का अन्तर्भाव है। १० भेद ये हैं - 'अपायविचय, उपायविचय, जीवविचय, अजीवविचय, विपाकविचय, विरागविचय, भवविचय, संस्थानविचय,
आज्ञाविचय और "हेतुविचय । इन में, संस्थानविचय में लोकविचय का अन्तर्भाव है और भवविचय में संसारविचय का। इसलिये उन दों का स्वतन्त्र उल्लेख न करने से १० की संख्या ठीक बनी रहती है।
* धर्मध्याता के दश भेद * (१) अपायविचय :- अपाय के बारे में विचय यानी विचार, यही अपायविचय है। उपायविचयादि भेदों में भी इसी तरह शब्दार्थ समझ रखना है। 'कैसे मेरे अप्रशस्त मन-वचन-काया के स्पन्दनों का अपाय यानी निरोध हो' ऐसी संकल्प-परम्परा अपायविचय पहला भेद है। इस में दोषों के परिहार की चिन्ता की जा रही है, यह कुशलप्रवृत्तिस्वरूप है अत अव धर्मध्यानस्वरूप हैं।
(२) उपायविचय :- कुशल मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों को अंगीकार करना, उस के उपायों को सोचना यह उपायविचय है। 'मेरे मन-वचन-काया की सब प्रवृत्ति कुशल कैसे बने' यह चिन्तन-प्रबन्ध इस में किया जाता है।
(३) जीवविचय :- जीव के वास्तविक स्वरूप का विचार करना यह जीवविचय है। जैसे कि यह सोचना - जीव के एक-दूसरे से मिले हुए असंख्यप्रदेश हैं। साकार और निराकार दो उपयोग, जीव का लक्षण है। जीव अनादि है। अपने किये हुए कर्मों के फल-विपाक का खुद ही उपभोक्ता है... इत्यादि चिन्तासन्तान जीवविचय धर्मध्यान है।
(४) अजीवविचय :- अजीव पदार्थों के स्वरूप का मनन-चिंतन करना यह अजीवविचय धर्मध्यान है। जैसे-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल ये अजीव के पाँच भेद हैं। ये अजीव द्रव्य अनन्तपर्यायों में विवर्त्तमान रहते हैं... इत्यादि।
(५) विपाकविचय :- कर्मों के विपाक का चिन्तन विपाकविचय है। जैसे - मूल आठ भेदवाले और १५८ उपभेदवाले कर्मों में से कुछ भेदों के फल मधुर होते हैं, कुछ के फल कुटु होते हैं। ये कर्म पुद्गलस्वरूप ही होते हैं न कि आत्म-गुणस्वरूप। सभी संसारी जीवों को कटु-मधुर कर्मफलों का भोग करना पडता है।
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