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___ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् व्यक्तिस्वलक्षणवत् तत् सामान्यमेव न भवेत् व्यक्तीनां वा सामान्याव्यतिरेकाद् व्यक्तिस्वरूपहानेः सामान्यस्य तद्रूपता न भवेत् । न च व्यतिरेकाव्यतिरेकपक्षेऽप्यनवस्थोभयपक्षदोष-वैयधिकरण्य-संशयविरोधादिदोषप्रसङ्गात् सर्वथा तदभावः; अनवस्थादिदोषस्य प्राक् प्रतिषिद्धत्वात्, प्रतीयमानेऽपि तथाभूते वस्तुनि विरोधादिदोषासञ्जने प्रकारान्तरेण प्रतिभासाऽसम्भवात् सर्वशून्यताप्रसङ्गः। न च सैवास्तु इति वक्तव्यम् स्वसंवेदनमात्रस्याप्यभावप्रसङ्गतः निष्प्रमाणिकायाः तस्या अप्यभ्युपगन्तुमशक्यत्वात्, तथापि तस्या अभ्युपगमे वरमनेकान्तात्मकं वस्तु अभ्युपगन्तव्यम् तस्याऽबाधितप्रतीतिगोचरत्वात् ।
तेन, रूपादि-क्षणिकज्ञानमात्र- शून्यवादाभ्युपगमः तथा पृथिव्यायेकान्तनित्यत्वाभ्युपगमः तथात्माद्यद्वैताङ्गीकरणम् तथा परलोकाभावनिरूपणम् द्रव्य-गुणादेरत्यन्तभेदप्रतिज्ञानं च तथा सत्ता का योग सम्भव ही नहीं है। यदि असत् द्रव्यादि के साथ सत्ता का योग होगा तो शशशृंगादि के साथ भी उस के योग की अनिष्ट आपत्ति होगी। तथा सामान्य को निष्क्रिय माना गया है, अतः व्यक्तियों के साथ उस का योग होने पर दो वैकल्पिक अनिष्ट प्रसक्त होगा। एक तो. निष्क्रिय सामान्य के योग वाल भी निष्क्रिय बन जायेगी, क्योंकि व्यक्ति सक्रिय होगी और सामान्य निष्क्रिय रहेगा तो उन का वियोग हो जायेगा। यदि व्यक्ति के योग से सामान्य भी सक्रिय बन जायेगा तो क्रियायुक्त होने से उस की व्यापकता का भंग होगा। ___ व्यतिरिक्त पक्ष को छोड कर अब अव्यतिरिक्त पक्ष का विचार करे - सामान्य को व्यक्ति से अव्यतिरिक्त नहीं मानेंगे तो व्यक्तिविशेष स्वलक्षण की भाँति वह भी विशेष रूप बन जायेगा और उस की सामान्यरूपता का भंग होगा। अथवा सामान्य से व्यतिरिक्त न होने से व्यक्ति के विशेषस्वरूप की हानि होगी। अतः सामान्य को व्यक्तिरूप यानी व्यक्ति से अव्यतिरिक्त मानना भी युक्तिसंगत नहीं है, दोषसंगत है।
* व्यतिरेक-अव्यतिरेक पक्ष में दोषों का निराकरण * __यदि कहा जाय - व्यक्ति-जाति में व्यतिरेक-अव्यतिरेक यह तीसरा पक्ष मानेंगे तो अनवस्था, उभयपक्ष के दोष, व्यधिकरणता, संशय, विरोध आदि अनेक विपदा खडी होगी. नतीजा यह होगा कि सामान्यतत्त्व का ही लोप प्रसक्त होगा। – तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अनवस्थादि कोई भी दोष कथंचिद् व्यतिरिक्त-अव्यतिरिक्त पक्ष में नहीं होता, कथंचिद् की यह महिमा है - यह पहले बताया जा चुका है। वास्तविकता तो यह है कि प्रमाण से वस्तु अनेकान्तस्वरूप ही जब प्रतीत होती है तब यदि उस में काल्पनिक विरोधादि दोषों का उद्भावन किया जायेगा तो, अन्य एकान्तस्वरूप से उस का प्रतिभास सम्भव न होने से 'सर्वं शून्यं' शून्यवाद ही दुष्टता फैलायेगा। 'अरे ! उसी को मान लेंगे' ऐसा कहना नादानीयत है, क्योंकि सब स्वानुभवमात्र के उच्छेद का महा दूषण प्रसक्त होगा। उपरांत, सर्वशून्यतावाद में प्रमाण भी शून्य हो जाने पर प्रमाणशून्य सर्वशून्यता का स्वीकार कौन करेगा ? प्रमाण के विरह में यदि सर्वशून्यता का स्वीकार करेंगे तो उस से बहुत अच्छा होगा कि प्रमाणसिद्ध अनेकान्तात्मक वस्तु का स्वीकार कर लेना, क्योंकि निर्बाध प्रतीति उसी को विषय करती है।
* विविध मतों का एकान्त अनिष्ट, अनेकान्त इष्ट * एकान्तवादियों की मान्यताएँ विचित्र है – 'कोई मानता है, रूपादि सारे पदार्थ क्षणिक ही है। कोई मानता है, जगत् क्षणिक विज्ञानमात्र ही है। कोई मानता है कुछ भी नहीं है, सब शून्य है। कोई मानता है, पृथिवी आदि एकान्त नित्य ही है। कोई कहता है अद्वैतवाद ही वास्तविक है जिस में एकमात्र आत्मा की या ज्ञान की या शब्द की ही हस्ती है। कोई कहता है परलोक कोई चीज नहीं है। कोई कहता
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