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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् शाखाव्यतिरिक्तस्कन्धादिविशिष्टसमुदायनिबन्धनैव । ___ एवम् ‘इह घटे रूप-रस-गन्ध-स्पर्शाः' इत्यादिबुद्धेरपि घटस्वभावत्वं रूपादीनां निबन्धनत्वेन प्रतिपद्यते लोकः । तथाहि – घटे रूपादिकं = 'घटस्वभावमेव एतद्रूपादिकं न पटस्वभावम्' (इत्यर्थः)। बहुषु रूपादिषु साधारणशक्तिविशेषप्रतिपादनाभिप्रायेण तदन्यरूपादिव्यवच्छेदेन घटादिश्रुतेः संकेतः, रूपादिश्रुतेस्तु प्रत्येकमसाधारणचक्षुर्ज्ञानादिकार्योत्पादनशक्तिप्रकाशनाय समयकरणम् । अत एव घटादिश्रुतिर्न रूपादीन् भेदानाक्षिपति तत्सामानाधिकरण्याभावात् । रूपादिशब्दाश्च घट-पटादिसर्वावस्थरूपादिवाचका इति रूपादिशब्देभ्यः केवलेभ्यो न तद्विशेषप्रतीतिस्तेन विशिष्टावस्थरूपादिप्रतिपादनाय ‘घटे रूपादय' इत्थमेवमुभयपदप्रयोगः क्रियते, ततोऽपि घटात्मका रूपादयः पटात्मकरूपादिव्यवच्छेदेन प्रतीयन्ते। घटशब्दस्तु सर्वावस्थं चलनादिस्वभावान्वितं घटं ब्रूते इति केवलान्न विशेषप्रतीतिः, 'रूपम्' इत्यादिशब्दप्रयोगे तु तदन्यव्यवच्छेदेन विशेषप्रतिपत्तिरुपजायत इति तत्प्रयोगः। तस्मात् शिला' ऐसी उलटी बुद्धि ही अनुभवसिद्ध है। ‘वृक्ष में शाखा' इत्यादि मति समवायमूलक नहीं होती किन्तु निर्दिष्ट शाखा से व्यतिरिक्त अधो-ऊर्ध्वभागवर्ति स्कन्धादिविशिष्टसमुदाय के निकट सांनिध्य मूलक ही होती है।
* घट में रूपादि की बुद्धि का विश्लेषण * 'यहाँ घट में रूप-रस-गन्ध-स्पर्श हैं' यह प्रतीति भी समवायमूलक नहीं है। लोक में इस बुद्धि का निमित्त, रूपादि में घटस्वभावतारूप ही अनुभूत किया जाता है। समझ लो कि 'घट में रूपादि' इस उल्लेख का फलितार्थ यह है कि ये रूपादि घटस्वभाव ही हैं न कि पटस्वभावरूप। यदि यह पूछा जाय कि जब घट और रूपादि समस्वभाव यानी एक है तब दो में से एक का ही उल्लेख होना चाहिये, दोनों का क्यों ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि घट का रूप, पट का रूप, नट का रूप ऐसे रूपादि अनेक हैं, रूपादि शब्द ये अनेक प्रकार के रूपादि के लिये साधारण है, अतः प्रस्तुत में सिर्फ घटस्वभावरूप में शक्तिविशेष के प्रतिपादन का तात्पर्य होने से, अन्यरूपादि का व्यवच्छेद सूचित करने के लिये घटादिशब्द का संकेत ‘घट' शब्दप्रयोग से किया जाता है। रूपादि शब्द का प्रयोग भी इसलिये किया जाता है कि घटस्वभाव पटस्वभावादिरूप प्रत्येक रूपादि में असाधारण चाक्षुषज्ञानादि कार्योत्पादक सामर्थ्य निहित है यह प्रदर्शित किया जाय। इस प्रकार का विशिष्ट प्रयोजन होने से ही, सिर्फ घटादिशब्द प्रयुक्त होने पर रूपादि भेदों का निर्देश सम्भव नहीं होता, क्योंकि घटादिशब्दों का रूपादि के साथ मिल कर एक अर्थ सूचित करना' इस ढंग का सामानाधिकरण्य नहीं होता । रूपादिशब्द भी घट-पटादि अवस्थावाले रूपादि का वाचक होता है अतः केवल रूपादिशब्द से घटस्वभाव या पटस्वभावात्मक रूपविशेष की प्रतीति नहीं हो सकती, अत एव घट-पटादिविशेष अधिकरण स्वरूपावस्थावाले रूपादिविशेष की प्रतीति के लिये ‘घट के रूपादि' इस तरह दोनों पदों का प्रयोग किया जाता है। इसी उपाय से. पटस्वभाव रूपादि का व्यवच्छेद हो कर घटात्मक रूपादि प्रतीति होती है। घट शब्द तो सर्वावस्थासहित
दिस्वभाव से अन्वित घट का निर्देश करता है, उस से रूपावस्थाविशेष की प्रतीति नहीं होती। रूपादिशब्दप्रयोग होने पर चलनादिअन्यावस्था का व्यवच्छेद हो कर रूपावस्थाविशेष की प्रतीति होती है, इसलिये रूपादिशब्द का भी प्रयोग सार्थक है। उपरोक्त संकेत के आधार पर, 'यहाँ घट में रूपादि' इत्यादि उल्लेखवाला ज्ञान जो होता है वह रूपादि में घटस्वभावतादिमूलक होता है न कि समवायमूलक । कारण, घट-रूपादि-समवाय तीनों का भेद, यानी ये तीन कभी भी अलग अलग उपलब्ध नहीं होते, फिर कैसे वह ज्ञान समवायप्रयुक्त हो सकता है ?! तात्पर्य, समवाय की सिद्धि के लिये उपन्यस्त अनुमान में प्रयुक्त स्वभावहेतु समवाय कल्पना के विना भी रह
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