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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् अस्ति च तद्धर्मतयाऽनुभवस्मरणयोः तदा प्रतिपत्तिरिति कथं क्षणिकैकान्तवादः तत्र वा प्रतिबन्धनिश्चय इति ?! न चैकान्तवादिनः सामान्यादिकं साध्यं सम्भवतीति प्रतिपादितम् । तस्मादनेकान्तात्मकं वस्तु अभ्युपगन्तव्यम् अध्यक्षादेः प्रमाणस्य तत्प्रतिपादकत्वेन प्रवृत्तेः ।।५९॥ ___ स एव च सन्मार्ग इत्युपसंहरन्नाह -
दव्वं खित्तं कालं भावं पज्जाय-देस-संजोगे।
भेदं च पच्च समा भावाणं पण्णवणपज्जा ॥६॥ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-पर्याय-देश-संयोगान् भेदं चेत्यष्टौ भावान् आश्रित्य वस्तुनो भेदे सति समा सर्ववस्तुविषयायाः प्रज्ञापनायाः स्याद्वादरूपायाः पर्या = पन्थाः मार्ग इति यावत् ।।
तत्र द्रव्यं पृथिव्यादि, क्षेत्रं स्वारम्भकावयवस्वरूपम् तदाश्रयं वा आकाशम्, कालं युगपदयुगपच्चिरक्षिप्रप्रत्ययलिङ्गलक्षणम् वर्तनात्मकं वा नव-पुराणादिलक्षणम् भावं मूलाङ्कुरादिलक्षणम् पर्यायं रूपादिस्वभावम् देशं मूलाङ्कुरपत्रकाण्डादिक्रमभाविविभागम्, संयोगं भूम्यादिप्रत्येकसमुदायं द्रव्यपर्यायके) धर्म के रूप में जो उस की प्रतीति होती है वह भी नहीं होगी। जिस वस्तु के अनुभवकाल में जो विद्यमान नहीं है, उस वस्तु को 'उस के धर्म' के रूप में मानना उचित नहीं है। उदा. - जब ज्ञान ही नहीं होगा तो ज्ञाता, ज्ञेय और संवेदन के त्रिक का अनुभव भी नहीं होता। स्पष्ट दिखता है कि अनुभव
और स्मरण की एक आधारभूत धर्मी के धर्मरूप में प्रतीति होती है, तब विभिन्न क्षणों में अनुगत एक आत्मा सिद्ध होता है, फिर कैसे एकान्त क्षणिकवाद प्रामाणिक हो सकता है ? अथवा एकान्त क्षणिकवाद में जब कारण-कार्य का किसी एक ज्ञानक्षण में भास ही नहीं होता, तो प्रतिबन्ध का निश्चय कैसे हो सकता है ? पहले यह बता चुके हैं कि एकान्तवाद में सामान्य या विशेष कोई भी साध्य या हेतु नहीं हो सकता है। निष्कर्ष, वस्तु को अनेकान्तात्मक स्वीकारना चाहिये, क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाण वस्तु को अनेकान्तात्मक ही दिखाने में तत्पर हैं ।।५९ ।।
* द्रव्यादि आठ से सापेक्ष निरूपण का सन्मार्ग * प्रस्तुत चर्चा के उपसंहार में ६० वी गाथा में कहते हैं कि स्याद्वाद ही सन्मार्ग है -
गाथार्थ :- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पर्याय, देश, संयोग और भेद के आधार से भावों का प्रज्ञापनामार्ग सम्यक् है ।।६०॥
___ व्याख्यार्थ :- वस्तु-वस्तु में आठ भाव के आधार पर भेद किया जाय तब सर्व वस्तु सम्बन्धी स्याद्वादगर्भित प्रज्ञापना मार्ग सम यानी सम्यक् होता है (पर्या का अर्थ पन्थ यानी मार्ग)। वे आठ भाव हैं द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पर्याय, देश, संयोग और भेद। एक एक का परिचय → 'द्रव्य' यानी पृथ्वी-जलादि । 'क्षेत्र' यानी द्रव्य के जनक अवयव अथवा उन का आश्रय आकाश। “एक साथ बोले', 'एक साथ नहीं बोले', 'यह कार्य विलम्ब से हआ' अथवा 'त्वरित हआ ऐसी प्रतीति का आलम्बन 'काल' द्रव्य है। काल को द्रव्यात्मक नहीं किन्तु जैनदर्शनप्रसिद्ध वर्तनापर्याय स्वरूप ग्रहण करे तो ‘यह पुराना है यह नया है' ऐसी प्रतीति का आलम्बन काल है। 'भाव' से यहाँ मूल-अंकुरादिभाव विवक्षित है। ‘पर्याय' शब्द से रूप-रस आदि विवक्षित हैं। 'देश' शब्द से मूल, उस के बाद अंकुर, उस के बाद क्रमशः पत्र, काण्ड आदि का
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