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पञ्चमः खण्डः - का० ५६
२५७ माननित्यधर्मकत्वं यदि शब्दे न तत्त्वतः सिद्धं तदा पक्षवृत्तितयास्यासिद्धे कथं नासिद्धः ? अथ तत् तत्र सिद्धम् तदा किं साध्यधर्माऽन्विते धर्मिणि तत् सिद्धम् उत तद्विकले इति वक्तव्यम् । यदि तदन्विते तदा साध्यवत्येव धर्मिणि तस्य सद्भावसिद्धेः कथमगमकता ? न हि 'साध्यधर्ममन्तरेण धर्मिण्यभवनं' विहायापरं हेतोरविनाभावित्वम तच्चेत समस्ति कथं न गमकता, अविनाभावनिबन्धनत्वात्तस्याः ? अथ तद्विकले तत् तत्र सिद्धं तदा तत्र वर्त्तमानो हेतुः कथं न विरुद्धं, विपक्ष एव वर्त्तमानस्य विरुद्धत्वात् ? भवति च साध्यधर्मविकल एव धर्मिणि वर्त्तमानो विपक्षवृत्तिः। अथ संदिग्धसाध्यधर्मवति तत् तत्र वर्त्तते तदा संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वाद् अनैकान्तिकः।
अथ साध्यधर्मिव्यतिरिक्ते धर्म्यन्तरे यस्य साध्याभाव एव दर्शनं स विरुद्धः, यस्य च तदभावेऽपि असावनैकान्तिकः। न हि धर्मिण एव विपक्षता तस्य हि विपक्षत्वे सर्वस्य हेतोरहेतुत्वप्रसक्तेः । यतः साध्यधर्मी साध्यधर्मसदसत्त्वाश्रयत्वेन सर्वदा संदिग्ध एव साध्यसिद्धेः प्राग् अन्यथा साध्याभावे निश्चिते साध्याभावनिश्चायकत्वेन प्रमाणेन बाधितत्वात् हेतोरप्रवृत्तिरेव स्यात्, प्रत्यक्षादिप्रमाणेन च साध्यधर्मयुक्ततया धर्मिणो निश्चये हेतोर्वैयर्थ्यप्रसक्तिः प्रत्यक्षादित एव हेतुसाध्यस्य सिद्धेः। तस्मात् हेतु में सद्हेतुत्व का प्रसंग रहता है। पूर्वपक्षने यहाँ कालात्ययापदिष्टत्वादि दोष का प्रदर्शन किया था तब व्याख्याकार ने कहा कि हेत्वाभास तीन ही है। उनके सामने नैयायिकों ने विस्तार से प्रकरणसम और कालात्ययापदिष्ट हेत्वाभास का समर्थन किया। अब व्याख्याकार कहते हैं - असिद्ध, अनैकान्तिक और विरुद्ध ये तीन ही हेत्वाभास हैं। प्रकरणसम और कालात्ययापदिष्ट – ये दो दोष हेतु में संगत नहीं होने से वे हेत्वाभास नहीं हो सकते।
प्रकरणसम के निरूपण में जो उदाहरणस्थान बताया गया है - 'शब्द अनित्य है क्योंकि उसमें नित्य धर्म की उपलब्धि नहीं होती' - यह उदाहरण पृथक् प्रकरणसम हेत्वाभास दिखाने में असमर्थ है। कारण, यदि शब्द में नित्यधर्म की अनुपलब्धि परमार्थ से सिद्ध नहीं है तो हेतु पक्षवृत्ति न होने से असिद्ध बन जाता है, तब यहाँ असिद्ध हेत्वाभास ही क्यों न माना जाय ? यदि शब्द में नित्यधर्म की अनपलब्धि पारमार्थिकरूप से सिद्ध हो तब दो विकल्प सोच लेना चाहिये - कि वह सिद्ध हेतु साध्य धर्म से विशिष्ट धर्मी में सिद्ध है या साध्यधर्म से शून्य धर्मी में ? तात्पर्य यह है कि साध्यधर्म अनित्यत्व से विशिष्ट धर्मी घटादि में यदि हेतु सिद्ध है तब तो सपक्षवृत्ति भी है इसलिये वह शब्द में अपने साध्य का साधन करने में सक्षम क्यों न ह में अविनाभाव प्रसिद्ध होता है वही हेतु साध्यसाधक होता है। 'साध्यधर्म के न रहने पर किसी भी धर्मी में स्वयं नहीं रहता' – यही हेतु का साध्य के साथ अविनाभाव है। अनित्यत्व साध्य न रहने पर नित्यधर्मानुपलब्धिरूप हेतु भी किसी धर्मी में नहीं रहता, अतः हेतु साध्य का अविनाभावी सिद्ध होता है, तो फिर नित्यधर्मानुपलब्धि हेतु साध्यसाधक क्यों नहीं होगा ? यदि ऐसा हो कि नित्यधर्मानुपलब्धि हेतु साध्यधर्मविशिष्ट धर्मी में नहीं किन्तु साध्यधर्मशून्य धर्मी में ही सिद्ध है, तब तो वैसे धर्मी में रहनेवाला हेतु विरुद्ध ही कहा जाना उचित है। साध्यधर्मशून्य धर्मी को ही विपक्ष कहा जाता है और ऐसे विपक्ष में ही रहनेवाला हेतु विरुद्ध कहा जाता है। जो हेतु साध्यधर्मशून्य धर्मी में रहे वही तो विपक्षवृत्ति कहा जाता है।
यदि यह संदेह हो कि 'हेतु जिस धर्मी (पक्ष) में रहता है वह साध्यधर्म से विशिष्ट है या शून्य है ?' तो यहाँ हेतु के धर्मी को यानी पक्ष को संदिग्धसाध्यधर्मवाला कहा जायेगा, हेतु यदि ऐसे संदिग्धसाध्यधर्मवाले धर्मी में वर्तमान है तो उस की विपक्षव्यावृत्ति भी संदिग्ध हो जायेगी, क्योंकि यदि हेतु का धर्मी साध्यधर्मशून्य होगा तो वही विपक्ष बन जायेगा, किन्तु पक्ष यहाँ विपक्षभूत ही है या नहीं इस बारे में संदेह है इसलिये
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