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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् यदपि 'अत्राऽसाधारणत्वाऽसिद्धत्वदोषद्वयनिरासार्थमन्यतरशब्दाभिधेयत्वं पक्ष-सपक्षयोः साधारणं हेतुत्वेन विवक्षितम् अन्यतरशब्दात् तथाविधार्थप्रतिपत्तेः तस्य तत्र योग्यत्वात्' इत्यभिधानम् तदप्यसंगतम् यतः यत्राऽनियमेन फलसम्बन्धो विवक्षितो भवति तत्रैव लोके 'अन्यतर' शब्दप्रयोगो दृष्टः यथा 'देवदत्तयज्ञदत्तयोरन्यतरं भोजय' इत्यत्राऽनियमेन देवदत्तो यज्ञदत्तो वा भोजनक्रियया सम्बध्यते इति 'अन्यतर' - शब्दप्रयोगः, न चैवं शब्दः पक्ष-सपक्षयोरन्यतरः तस्य पक्षत्वेन 'अन्यत' शब्दवाच्यत्वाऽयोगात् । यदपि 'यदा पक्षधर्मत्वं प्रयोक्ता विवक्षित तदा 'अन्यतर' शब्दवाच्यः पक्षः' इत्याद्यभिधानम् तदप्यसंगतम् एवंविवक्षायामस्य कल्पनासमारोपितत्वेऽनर्थरूपतया लिङ्गत्वानुपपत्तेः। न हि कल्पनाविरचितस्यार्थत्वं त्रैरूप्यं वोपपत्तिमत् अतिप्रसङ्गात् । तत्त्वे वाऽन्यस्य गमकतानिबन्धनस्याभावात् सम्यग्घेतुत्वं स्यादित्युक्तं प्राक् । ___ कालात्ययापदिष्टस्य तु लक्षणमसंगतमेव । न हि प्रमाणप्रसिद्धत्ररूप्यसद्भावे हेतोर्विषयबाधा सम्भविनी, तयोर्विरोधात् । साध्यसद्भावे एव हेतोर्धमिणि सद्भावस्त्रैरूप्यम् तदभाव एव च तत्र तत्सद्भावो बाधा, भावाभावयोश्चैकत्रैकस्य विरोधः । यह देखिये - आपने जो पहले कहा है कि – 'असाधारण अनैकान्तिक दोष और असिद्धत्व दोष ये दोनों को निरवकाश दिखाने के लिये पक्ष और सपक्ष उभय साधारण 'अभ्यन्तर' शब्दवाच्य पदार्थ को हेतु के रूप में प्रदर्शित किया गया है। ‘अन्यतर' शब्द से 'दो में से कोई एक' ऐसे अर्थ का बोध होता है और वैसा अर्थ यहां पक्ष-सपक्षान्यतरत्व का, होने योग्य है, असंगत नहीं है।' – यह विधान अनुचित है। कारण, अन्यतर शब्द का यही अर्थ यहाँ संगत नहीं है। जहाँ फल अर्थात् विधेय का अन्वय अनियतरूप से दो में से किसी भी एक के साथ विवक्षित हो (न कि दो में से अमुक ही एक के साथ), वहाँ ही लोकव्यवहार में 'अन्यतर' शब्द का प्रयोग किया जाता है। जैसे उदा. 'देवदत्त-यज्ञदत्त दो में से एक को भोजन कराओ' ऐसे वाक्यप्रयोग से अनियतरूप से भोजन कराने की क्रिया का अन्वय चाहे देवदत्त के साथ किया जाय या यज्ञदत्त के साथ, इष्ट है, अत एव यहाँ 'अन्यतर' शब्द के अर्थ में 'दो में से एक' ऐसा शब्दप्रयोग किया जा सकता है। आपने जो शब्द को पक्ष कर के पक्ष-सपक्षान्यतर को हेतु किया है वहाँ तो अन्यतर शब्द से अनियतभाव से 'पक्ष या सपक्षरूप होने से' ऐसा अर्थ आप को अभिप्रेत ही नहीं है। आप को तो नियतभाव से 'अन्यतर' शब्द से ‘पक्ष' ही अर्थ अभिप्रेत है, और उस के लिये 'अन्यतर' शब्द का
ग्य नहीं है। अतः अन्यतरशब्द के प्रयोग द्वारा प्रकरणसमत्व को लब्धप्रसर दिखाना असाधारणअनैकान्तिक एवं असिद्धत्व को निरवकाश दिखाना गैरमुनासिब है। ___ यह जो आपने कहा था कि – 'हेतु में पक्षवृत्तित्व दिखाना विवक्षित हो तब 'अन्यतर' शब्द का पक्ष अर्थ ग्रहण करना।' – वह भी असंगत है क्योंकि वास्तव में नियतरूप से पक्षात्मक ही अर्थ का ग्रहण शक्य न होने पर आप को यहाँ कल्पना से ही तथाविध अर्थ का समारोपण करना पड़ेगा और कल्पना-आरोपित अर्थ तो अनर्थ है, अर्थात् अवास्तव है, उस में हेतुत्व ही नहीं घट सकता। कल्पना-आरोपित अर्थ न तो वास्तविक अर्थ होता है, न उस में हेतु के तीन रूप भी संगत हो सकते हैं, क्योंकि फिर सर्वथा अव्यवस्था का अतिप्रसंग सिर उठायेगा। यदि कल्पना-आरोपित अर्थ में तीन रूपों को संगत माना जाय, तब तो और कोई त्रैरूप्य से अतिरिक्त गमकत्वप्रयोजक होता नहीं, त्रिरूपता ही गमकत्व का प्रयोजक होता है, फलतः वह हेतु सम्यग् हेतु ही बन बैठेगा। यह पहले भी कहा जा चुका है।
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