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पञ्चमः खण्डः - का० ५६
२७१ ता एव तद् आत्मनि अवस्थापयन्ति तयैव ता एव 'अश्वः अश्वः' इत्येकाकारपरामर्शप्रत्ययमुपजनयिष्यन्तीति किमपरतद्भिन्नसामान्यप्रकल्पनया ? न च स्वाश्रयेन्द्रियसंयोगात् प्राक् स्वज्ञानजननेऽसमर्थं सामान्यं तदा परैरनाधेयातिशयम् तमपेक्ष्य स्वावभासि ज्ञानं जनयति, प्राक्तनाऽसमर्थस्वभावाऽपरित्यागे स्वभावान्तरानुत्पादे च तदयोगात् तथाभ्युपगमे च क्षणिकताप्रसक्तेः। न च स्वभावान्तरस्योपजायमानस्य ततो भेदः, सम्बन्धाऽसिद्धितः तत्सद्भावेऽपि प्राग्वत् तस्य स्वावभासिज्ञानजननयोगाद् न प्रतिभासः स्यात् । तथा च सामान्यस्य व्यक्तिभ्यो भेदेनाऽप्रतिभासमानस्यासिद्धत्वात् कथं हेतुत्वम् ?
किञ्च, प्रतिव्यक्ति सामान्यस्य सर्वात्मना परिसमाप्तत्वाभ्युपगमादेकस्यां व्यक्तौ विनिवेशितस्वरूपस्य तदैव व्यक्त्यन्तरे वृत्त्यनुपपत्तेस्तदनुरूपप्रत्ययस्य तत्राऽसम्भवादसाधारणता च हेतोः स्यात् । यदि चाऽसाधारणरूपा व्यक्तयः स्वरूपतः तदा परसामान्ययोगादपि न साधारणतां प्रतिपद्यन्त इति व्यर्था सामान्यप्रकल्पना, स्वतोऽसाधारणस्यान्ययोगादपि साधारणरूपत्वानुपपत्तेः स्वतस्तद्रूपत्वेऽपि निशाबलेयादि से अश्वत्व की अभिव्यक्ति हो जाने का सवाल ही नहीं है' - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा सामर्थ्य अश्व में ही सीमित करने के लिये आप को सम्बन्धविशेष (प्रत्यासत्ति) को मानना ही पडेगा, इस स्थिति में यह कहना उचित होगा कि जिस सम्बन्ध विशेष से, सर्वगत होने पर भी सामान्य की अभिव्यक्ति का सामर्थ्य सिर्फ अश्वादि व्यक्ति में ही सीमित रहता है - उस सम्बन्ध विशेष के बल से ही (अश्वत्वादि सामान्य के न होने पर भी) 'यह अश्व है - अश्व है' इस प्रकार की एकाकार प्रतीति भी उत्पन्न हो जायेगी, तब व्यक्ति से भिन्न स्वतन्त्र अश्वत्वादि सामान्य की कल्पना करने का कष्ट क्यों करे ?
* नित्यसामान्य ज्ञानोत्पाद में अकिंचित्कर * यह भी सोचना चाहिये कि सामान्य नित्य होने से, उस में अन्य किसी से कुछ भी संस्काराधान का सम्भव नहीं है, ऐसा सामान्य अपने आश्रय के साथ इन्द्रिय का संयोग होने के पहले तो अपना अवभास करने में समर्थ नहीं होता। फिर इन्द्रियसंनिकर्ष के बाद भी वह कैसे समर्थ हो सकता है जब कि नित्य होने से उस की असमर्थता में कोई परिवर्तन सम्भव नहीं है ?! पूर्वकालीन असमर्थस्वभाव का त्याग न किया जाय और उत्तरकालीन समर्थस्वभाव का अंगीकार न किया जाय तब तक वह अपने ज्ञान के उत्पाद में समर्थ नहीं बन सकता। यदि उसे पूर्वस्वभावत्याग और उत्तरस्वभावअंगीकार करने वाला मान लिया जाय तो उस की नित्यता का भंग होगा और सामान्य क्षणिक मानने की विपदा होगी। तथा, सामान्य में नवीन स्वभाव
त्पाद मान लिया जाय तब भी वह स्वभाव सामान्य से भिन्न मानेंगे तो उन दोनों में सम्बन्ध स्थापना की खोज में अनवस्था प्रसक्त होगी। अतः सामान्य और नवीन स्वभाव में अभेद ही मानना होगा। अभेद माना जायेगा तो दो में से एक होगा, यानी कुछ भी परिवर्तन नहीं होगा, फलतः पूर्वावस्था की तरह वर्त्तमान में भी वह अपने ज्ञान की उत्पत्ति के लिये असमर्थ होने से उस का प्रतिभास अशक्य ही रहेगा। मूल बात यह चली है कि हेतु सामान्यरूप होगा कि विशेषरूप ? यदि सामान्यरूप होगा तो यहाँ अब सवाल है कि व्यक्तियों से स्वतन्त्र भिन्नरूप से प्रतिभासित न होनेवाला सामान्य असिद्ध है, वह हेतु कैसे बन सकेगा ?
* सामान्यात्मक हेतु में असाधारणतादोषप्रसक्ति * व्यक्ति भिन्न सामान्य पक्ष में एक असंगति यह भी है कि सामान्य अपने समस्त अखंडरूप से एक एक व्यक्ति में समाविष्ट मान लेने पर यह दुर्घटना होगी कि एक व्यक्ति में अखंडरूप से समाविष्ट सामान्य
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