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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
इत्यनुवृत्तिप्रत्ययो न स्यादिति हेतोरसिद्धत्वात् नानुमानबाधा " ( ) इति सोऽप्ययुक्तकारी, नीलादेर्गुणाद् नीलत्वादेः सामान्यस्यैवमभेदप्रसंगात् । अथ गुणस्य व्यावृत्तत्वात् तत्सामान्यस्य त्वनुगतत्वादाकारभेदाद् भेदः । न, व्यावृत्तनीलादिगुणव्यक्तिरिक्तानुगतनीलत्वादिसामान्यस्य नीलाद्याकारस्याऽप्रतिभासनादध्यक्षेऽसाधारणस्य नीलादेरेकस्यैव प्रतिभासनात् विकल्पज्ञानेऽपि यथादृष्टस्यैव निर्णयाद् द्वितीयस्य सामान्याकारस्य तत्राप्यनिश्चयात् । न च क्षणिकत्ववत् प्रतिभासमानमपि सामान्यं व्यक्तिभेदेन नोपलभ्यत इति वक्तव्यम्, अनुपलक्षितस्य व्यक्तिष्वभिन्नधी- ध्वनिनिमित्तत्वाऽयोगात् । न हि विशेषणानुपलक्षणे विशेष्ये बुद्धिरुपजायते दण्डानुपलक्षणे दण्डिबुद्धिवत् । तथा च "समवायिनः श्वैत्यात् श्वैत्यबुद्धेः श्वेते बुद्धिः" (वै० द० ८-१-९) इति वचनं निरवकाशं भवेत् । किञ्च, अविकल्पविज्ञानवादिनः है, अर्थात् जाति और व्यक्ति का प्रतिभास तो सामानाकार ही होता है क्योंकि दोनों के लिए 'नीलनील' ऐसा एकरूप ही प्रत्यय होता है । अतः नीलत्वग्राहक प्रतीति विलक्षणार्थप्रतिभासरूप नहीं किन्तु नीलत्वप्रकाशक नीलाकारप्रतिभासरूप ही है । अतः प्रतिवादी अनुमान में नीलत्व - अग्राहकत्व की सिद्धि के लिये जो नीलत्वविलक्षणार्थ प्रतिभास का हेतुरूप में उपन्यास किया गया है वह असिद्ध है । अतः असिद्ध हेतु से अनुमान न होने से हमारे पूर्वोक्त ' अनुगत प्रतीति में व्यक्तिभिन्न अनुगतनिमित्तहेतुकत्व साधक' अनुमान में प्रस्तुत अनुमान से बाधा पहुँचने का सवाल ही नहीं है ।
जाय
शंकरस्वामी का यह विधान अयुक्त है, क्योंकि ऐसा मानने पर नीलादि गुण और नीलत्वादि सामान्य में अभेद ही प्रसक्त होगा क्योंकि दोनों का ज्ञान 'नील - नील' इस तरह समान ही आपने माना है । यदि कहा 'गुण का स्वरूप व्यावृत्तिमय है और सामान्य का स्वरूप है अनुवृत्ति, इस प्रकार दोनों के आकारस्वरूप में भेद होने से उन दोनों में अभेद प्रसक्त नहीं हो सकता' तो यह कथन गलत है क्योंकि 'नील - नील ऐसे प्रतिभास में व्यावृत्तिमयनीलादिगुण से अनुवृत्तिमयनीलत्वादिसामान्य पृथक् है इस ढंग से नीलादिआकार का भान नहीं होता । निर्विकल्प प्रत्यक्ष में तो सिर्फ एक मात्र नीलादिस्वलक्षण ही स्फुरित होता है और निर्विकल्प में जैसा दुष्ट हो वैसा ही सविकल्पज्ञान में निश्चय का उद्भव होता है अतः सविकल्प में भी व्यावृत्तिमयनीलादि का ही भान होता है, उस से पृथक् सामान्याकार का वहाँ कोई निश्चय नहीं होता ।
* व्यक्ति से अलग प्रतिभास न होने का निमित्त
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यदि यह कहा जाय क्षणिकवाद में, निर्विकल्प में क्षणिकत्व का भान होने पर भी स्वलक्षणव्यक्ति से अलग क्षणिकत्व का जैसे सविकल्प में निर्णय नहीं होता, वैसे ही यहाँ नीलादिस्वलक्षण के साथ नीलत्वादि सामान्य का निर्विकल्प में भान होने पर भी सविकल्प में उसका व्यक्ति से अलग निश्चय नहीं होता - ऐसा मत कहिये, क्योंकि आप के मतानुसार जो व्यक्तियों में उपलक्षित नहीं होता वह व्यक्ति से अपृथग्रूप में अपने भान का अथवा उस से समान शब्दप्रयोग का हेतु नहीं बन सकता। आप का यह मत है कि विशेषण अज्ञात रहने पर विशेष्य में तद्रूप से बुद्धि नहीं होती जैसे दण्ड- ज्ञान न होने पर यह दण्डधारी है' ऐसी विशेष्य (यानी विशिष्ट ) बुद्धि नहीं हो सकती । इस तथ्य को मंजुर नहीं करेंगे तो वैशेषिकदर्शन के सूत्र ( ८-१-९) में जो कहा है कि 'समवायी में श्वेतता होने से श्वेतता की बुद्धि होती है और श्वेतता की (यानी विशेषण की) बुद्धि से वेत द्रव्य (विशेष्य) की बुद्धि होती है ।' यह विधान निरर्थक बन जायेगा। दूसरी बात यह है कि निर्विकल्प को ही प्रत्यक्ष प्रमाण मानने वाले बौद्ध मत में, प्रत्यक्ष से गृहीत का भी निश्चय में अप्रतिभासित होना माना जा सकता है, किन्तु जो न्यायवैशेषिकवादी सविकल्प को ही प्रत्यक्ष प्रमाण रूप मानते हैं उन के मत में गृहीत
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