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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
भेदस्य भावभेदकत्वादन्यथा भेदाऽयोगात् । न चैकस्यानेकवृत्तित्वं रूपादेरिव युक्तम् । अथ यथैकस्य रूपादेरेकवृत्तित्वं तथैवोपलम्भादभ्युपगम्यते तथैकस्य सामान्यस्यानेकवृत्तित्वमनेकत्रोपलम्भात् किं नाऽभ्युपगम्यते अबाधितोपलम्भस्य भावरूपव्यवस्थानिबन्धनत्वात् ? भवेदेतत् यद्यनेकवृत्तितयैकं सामान्यं स्वरूपतोऽध्यक्षे प्रतिभासेत, न चैवम् व्यक्तिव्यवस्थितस्यैकस्य व्यक्तिभ्यो भिन्नस्य कुत्रचित् प्रत्ययेऽप्रतिभासनात् । न च देशव्याप्तिः कालव्याप्तिर्वा कस्यचिद् भावस्य केनचित् प्रमाणेन प्रतिपत्तुं शक्येति प्राक् प्रतिपादितम् ।
न च परस्परव्यावृत्तात्मानो भावा अनुगतनिमित्तमन्तरेण कथमभिन्नाकारप्रत्ययनिबन्धनं भवन्तीति वक्तव्यम्, यतो यथा गुडूच्यादयो भावाः परस्परविविक्ता अपि सह प्रत्येकं चैकसामान्यमन्तरेणापि एकं ज्वरादिशमनलक्षणं कार्यं निर्वर्त्तयन्ति । न हि तत्रैकं सामान्यं तदर्थक्रियासम्पादनसमर्थमस्ति अन्यथा तेषां चिर- क्षिप्रादिभेदेन व्याध्युपशमसामर्थ्यापलब्धिर्न स्यात् सामान्यस्य सर्वत्रैकरूपत्वात् । न च सरसौषधाद्युपयोगसम्पाद्यशीघ्रव्याध्युपशमादिभेदोपलबब्धिश्च स्यात् सामान्यस्य नित्यस्वभावतया परैरनाधेयातिशयस्य सर्वत्र सर्वदेकरूपत्वात् । गुडूच्यादिभावनिबन्धनत्वे तु नायं दोषः तस्य प्रतिक्षणं * एक पदार्थ अनेकवृत्ति क्यों नहीं ? *
‘जैसे एक द्रव्य में एक रूप का उपलम्भ होने पर एकरूप को एकद्रव्यवृत्ति माना जाता है वैसे ही एक सामान्य की अनेक पिण्डों में उपलब्धि होती है अत एव एक में अनेकवृत्ति भी क्यों नहीं माना जाय ? भावों के स्वरूप की व्यवस्था कल्पना से नहीं किन्तु उसकी जैसी निर्बाध उपलब्धि हो उसके मुताबिक होती है ।' ऐसा सामान्यवादी का विधान तब मान लिया जाय यदि एक सामान्य स्वरूप से अनेक में रहता हुआ प्रत्यक्ष प्रतीति में स्फुरित होता हो । किन्तु वास्तव में वैसा कुछ भी स्फुरित नहीं होता, क्योंकि किसी भी प्रतीति में ऐसा स्फुरित नहीं होता कि एक ही व्यक्तिभिन्न सामान्य अनेक व्यक्तियों में एक साथ वर्त्तमान हो। पहले यह भी कह दिया है कि किसी भी प्रमाण से यह जानना शक्य नहीं है कि कोई एक वस्तु सर्वदेश में या सर्वकाल में व्याप्त है ।
* अनुगत सामान्य के विना भी अभेदबुद्धि शक्य
ऐसा मत कहना कि पदार्थ तो परस्पर व्यावृत्त होते हैं, तब उन
किसी एक अनुगतनिमित्त
के विना अभेदाकारप्रतीति सिर्फ व्यावृत्तपदार्थों से कैसे होगी ? निषेध का हेतु यह है कि अन्यत्र भी ऐसा देखा जाता है कि गुडूची, सुदर्शन चूर्ण आदि द्रव्य एक दूसरे से अत्यन्त भिन्न होते हैं, उन में कोई एक सामान्य नहीं है फिर भी वे सब द्रव्य मिल कर अथवा पृथक् पृथक् एक एक भी ज्वरादिशमनरूप एक कार्य करते हैं । ज्वरशमनरूप अर्थक्रिया करने के लिये उन में किसी भी, एक सामान्यतत्त्व की जरूर नहीं रहती। यदि उन में एक सामान्यतत्त्व की सत्ता मान कर समान कार्य की निष्पत्ति मानेंगे तो सभी में समान अवधि में ज्वरशमनसामर्थ्य भी मानना होगा क्योंकि सभी में एक ही सामान्य है । किन्तु स्पष्ट दिखता है कि किसी से तत्कालीन व्याधिशमन हो जाता है तो किसी से चिरकाल के बाद व्याधिशमन होता है । तथा, सामान्य तो सभी पिण्डों में नित्य एकरूप एवं अनाधेय अतिशयवाला (यानी जो किसी से भी प्रभावित न हो ऐसा ) होता है इसलिये रसाल एवं प्रत्यग्र ( नूतन जात) औषधादि के सेवन से जो शीघ्र व्याधिशमन आदि विशेषता उपलब्ध होती है वह नहीं हो सकेगी। यदि सामान्य के बदले गुडूची आदि को ही ज्वरशामक मान लिया जाय तो उस में उपरोक्त दोष नहीं होगा, क्योंकि क्षणिकवाद में प्रतिक्षण
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