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पञ्चमः खण्डः - का० ४९
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सिद्धः ।
असदेतत् – क्षणभङ्गसिद्धौ वेगाख्यसंस्कारकार्यस्य कर्मप्रबन्धस्याऽसिद्धेः । न हि उत्पत्त्यनन्तरं भावानां नाशे नियतदिक्रियाप्रबन्धस्य तद्धेतोश्च संस्कारस्योत्पत्तिः । न च स्वोपादानदेशाऽनन्तरदेशोत्पाद एव भावानां क्रियाप्रबन्धः, हेतोरनैकान्तिकत्वप्रसक्तेः । तथाहि - ततः प्राक्तनस्वहेतव एव सिद्धिमासादयन्ति न यथोक्तः संस्कारः, तेन सह क्वचिदप्यन्वयाऽसिद्धेः । यदि च तथाविधसंस्कारवशाद् इष्वादीनामपातस्तदा च न कदाचिदपि पातः स्यात् पातप्रतिबन्धकस्य वेगस्य सर्वदाऽवस्थानात् । एवं चाकाशप्रसर्पिणः शरस्याकस्मात् पातोपलब्धिर्न स्याद् भवदभ्युपगमेन ।
न च मूर्तिमद्वाय्वादिसंयोगाद्युपहतशक्तित्वाद् वेगस्य पतनम्, प्रथममेव पातप्रसक्तेः, वाय्वादिसंयोगस्य तद्विरोधिनस्तदैव सद्भावात् । न च प्राग् वेगस्य बलीयस्त्वाद् विरोधिनमपि मूर्त्तद्रव्यसंयोगमपास्य स्वाधारं देशान्तरं प्रापयति, पश्चादपि तस्य बलीयस्त्वात् तथैव तत्प्रापकत्वप्रसक्तेः । न हि कार्य की स्पष्ट उपलब्धि से ‘स्थितिस्थापक' संस्कार का अस्तित्व अनुमित होता है ।
* संस्कारों के खोखलेपन का दिग्दर्शन * प्रतिपक्षिप्रतिपादित यह संस्कारवार्ता खोखली है । जब क्षणभङ्गवाद सिद्ध हो चुका है तब क्षणिकवादी के मत में स्थायी 'वेग' संज्ञक संस्कार के द्वारा क्रिया-परम्परा रूप कार्य ही असिद्ध है । भावमात्र यानी वेग का आश्रय भी अपनी उत्पत्ति के दूसरे क्षण में नाशशील होते हैं, अतः नियतदिशाभिमुख क्रिया-परम्परा और उस के जनक संस्कार की उत्पत्ति उस आश्रय से हो नहीं सकती । यदि यह कहा जाय कि - 'क्षणिकवाद में भी क्रिया-परम्परा घट सकती है। अपने उपादानभूत देश के निकटतमप्रदेश में पुनः पुनः क्रिया की उत्पत्ति होना यही क्रिया-परम्परा है ।' - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर क्रियाप्रबन्ध रूप कार्यहेतु में साध्यद्रोह दोष प्राप्त होगा । कैसे यह देखिये, निकटतम देश में उत्पन्न क्रिया हेतु से उस के तथाविध उत्पादक पूर्वक्षणगत कारणों की सिद्धि अवश्य होगी, किन्तु पूर्वोक्त संस्कार कैसे सिद्ध होगा ? फलतः साध्य के विरह में हेतु रह जाने से साध्यद्रोही ठहरेगा । संस्कार के साथ क्रिया की व्याप्ति ही सिद्ध नहीं है अतः क्रिया परम्परा से संस्कार की सिद्धि आशास्पद नहीं रहती । तथा, आप के कल्पित संस्कार के प्रभाव से अगर बाणादि का मध्य में पात नहीं होता तो आगे भी कैसे होगा ? कभी भी उस का पात सम्भव नहीं रहेगा, क्योंकि पातप्रतिबन्धक वेग, क्रिया के आश्रय में सतत उपस्थित है । क्रियापरम्पराजनक एवं मध्य में पातप्रतिबन्धक वेग की कल्पना के पक्ष में उक्त रीति से गगनचारी बाणादि के अकस्मात् पतन का उपलम्भ ही कभी नहीं होगा, यह दृष्टविरोध दोष होगा ।
* वेगाख्य संस्कार की असंगतता * ___ यदि यह कहा जाय – 'मूर्त वायुद्रव्य के संयोग से वेग की शक्ति उपहत हो जाने से कालान्तर में इषु का भूमिपतन हो जाता है' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि धनुष्य से बाण छुटते समय ही उस का अधःपतन प्रसक्त हो जाना चाहिये क्योंकि वेग का विरोधी मूर्त्त वायुद्रव्य का संयोग वहाँ भी मौजुद है । यदि कहें कि - छूटते समय बाण में वेग अधिक बलवान् होता है अतः मूर्त्तद्रव्यसंयोग के विरोध को ठुकरा कर वह अपने आश्रय (बाण) को लक्ष्य-देश तक पहुँचा सकता है । - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि आदि से अन्त तक 'वेग' गुण तो एक ही है अतः आदि में बलवान् वेग अन्त में भी बलवान् होने से वह अपने आधार को
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