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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ १४७ सिद्धः । असदेतत् – क्षणभङ्गसिद्धौ वेगाख्यसंस्कारकार्यस्य कर्मप्रबन्धस्याऽसिद्धेः । न हि उत्पत्त्यनन्तरं भावानां नाशे नियतदिक्रियाप्रबन्धस्य तद्धेतोश्च संस्कारस्योत्पत्तिः । न च स्वोपादानदेशाऽनन्तरदेशोत्पाद एव भावानां क्रियाप्रबन्धः, हेतोरनैकान्तिकत्वप्रसक्तेः । तथाहि - ततः प्राक्तनस्वहेतव एव सिद्धिमासादयन्ति न यथोक्तः संस्कारः, तेन सह क्वचिदप्यन्वयाऽसिद्धेः । यदि च तथाविधसंस्कारवशाद् इष्वादीनामपातस्तदा च न कदाचिदपि पातः स्यात् पातप्रतिबन्धकस्य वेगस्य सर्वदाऽवस्थानात् । एवं चाकाशप्रसर्पिणः शरस्याकस्मात् पातोपलब्धिर्न स्याद् भवदभ्युपगमेन । न च मूर्तिमद्वाय्वादिसंयोगाद्युपहतशक्तित्वाद् वेगस्य पतनम्, प्रथममेव पातप्रसक्तेः, वाय्वादिसंयोगस्य तद्विरोधिनस्तदैव सद्भावात् । न च प्राग् वेगस्य बलीयस्त्वाद् विरोधिनमपि मूर्त्तद्रव्यसंयोगमपास्य स्वाधारं देशान्तरं प्रापयति, पश्चादपि तस्य बलीयस्त्वात् तथैव तत्प्रापकत्वप्रसक्तेः । न हि कार्य की स्पष्ट उपलब्धि से ‘स्थितिस्थापक' संस्कार का अस्तित्व अनुमित होता है । * संस्कारों के खोखलेपन का दिग्दर्शन * प्रतिपक्षिप्रतिपादित यह संस्कारवार्ता खोखली है । जब क्षणभङ्गवाद सिद्ध हो चुका है तब क्षणिकवादी के मत में स्थायी 'वेग' संज्ञक संस्कार के द्वारा क्रिया-परम्परा रूप कार्य ही असिद्ध है । भावमात्र यानी वेग का आश्रय भी अपनी उत्पत्ति के दूसरे क्षण में नाशशील होते हैं, अतः नियतदिशाभिमुख क्रिया-परम्परा और उस के जनक संस्कार की उत्पत्ति उस आश्रय से हो नहीं सकती । यदि यह कहा जाय कि - 'क्षणिकवाद में भी क्रिया-परम्परा घट सकती है। अपने उपादानभूत देश के निकटतमप्रदेश में पुनः पुनः क्रिया की उत्पत्ति होना यही क्रिया-परम्परा है ।' - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर क्रियाप्रबन्ध रूप कार्यहेतु में साध्यद्रोह दोष प्राप्त होगा । कैसे यह देखिये, निकटतम देश में उत्पन्न क्रिया हेतु से उस के तथाविध उत्पादक पूर्वक्षणगत कारणों की सिद्धि अवश्य होगी, किन्तु पूर्वोक्त संस्कार कैसे सिद्ध होगा ? फलतः साध्य के विरह में हेतु रह जाने से साध्यद्रोही ठहरेगा । संस्कार के साथ क्रिया की व्याप्ति ही सिद्ध नहीं है अतः क्रिया परम्परा से संस्कार की सिद्धि आशास्पद नहीं रहती । तथा, आप के कल्पित संस्कार के प्रभाव से अगर बाणादि का मध्य में पात नहीं होता तो आगे भी कैसे होगा ? कभी भी उस का पात सम्भव नहीं रहेगा, क्योंकि पातप्रतिबन्धक वेग, क्रिया के आश्रय में सतत उपस्थित है । क्रियापरम्पराजनक एवं मध्य में पातप्रतिबन्धक वेग की कल्पना के पक्ष में उक्त रीति से गगनचारी बाणादि के अकस्मात् पतन का उपलम्भ ही कभी नहीं होगा, यह दृष्टविरोध दोष होगा । * वेगाख्य संस्कार की असंगतता * ___ यदि यह कहा जाय – 'मूर्त वायुद्रव्य के संयोग से वेग की शक्ति उपहत हो जाने से कालान्तर में इषु का भूमिपतन हो जाता है' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि धनुष्य से बाण छुटते समय ही उस का अधःपतन प्रसक्त हो जाना चाहिये क्योंकि वेग का विरोधी मूर्त्त वायुद्रव्य का संयोग वहाँ भी मौजुद है । यदि कहें कि - छूटते समय बाण में वेग अधिक बलवान् होता है अतः मूर्त्तद्रव्यसंयोग के विरोध को ठुकरा कर वह अपने आश्रय (बाण) को लक्ष्य-देश तक पहुँचा सकता है । - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि आदि से अन्त तक 'वेग' गुण तो एक ही है अतः आदि में बलवान् वेग अन्त में भी बलवान् होने से वह अपने आधार को Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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