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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् __संस्कारस्तु त्रिविधः, वेगः भावना स्थितिस्थापकश्चेत्यभ्युपगतः । तत्र वेगाख्यः पृथिव्यप्-तेजोवायु-मनस्सु मूर्तिमद्रव्येषु प्रयत्नाभिघातविशेषापेक्षात् कर्मणः समुत्पद्यते नियतदिक्रियाप्रबन्धहेतुः स्पर्शवद्र्व्यसंयोगविरोधी च । तत्र शरीरादिप्रयत्नविशेषाविर्भूतकर्मविशेषनिमित्तः यद्वशादिषोरन्तरालेऽपातः स च नियतदिक्रियाकार्यसम्बन्धोनीयमानसद्भावः । लोष्टायभिघातोत्पन्नकर्मोत्पाद्यस्तु शाखादौ वेगाख्यः संस्कारः । भावनासंज्ञः पुनः आत्मगुणो ज्ञानजो ज्ञानहेतुश्च दृष्टाऽनुभूतश्रुतेष्वर्थेषु स्मृतिप्रत्यभिज्ञानकार्योन्नीयमानसद्भावः । मूर्तिमद्रव्यगुणः स्थितिस्थापको घनावयवसंनिवेशविशिष्टं स्वमाश्रयं कालान्तरस्थायिनमन्यथा व्यवस्थितमपि प्रयत्नतः पूर्ववद् यथावस्थितं स्थापयतीति कृत्वा । दृश्यते च तालपत्रादेः प्रभूततरकालसंवेष्टितस्य प्रसार्य मुक्तस्य पुनस्तथैवावस्थानं संस्कारवशात् । एवं धनुःशाखाशृङ्गदन्तादिषु भुग्नापवर्त्तितेषु च वस्त्रादिषु तस्य कार्यं परिस्फुटमुपलभ्यत एवेति ततस्तत्सद्भावः में रहनेवाले रूपादि गुणों का भी प्रतिषेध हो चुका है, उसी न्याय से गुरुत्वादि का भी निषेध हो जाता है क्योंकि न्याय तो सर्वत्र समान होता है. गरुत्वादि में उस का कोई पक्षपात नहीं है।
* वेग - भावना - स्थितिस्थापक त्रिविधसंस्कार * संस्कार के तीन भेद हैं १ वेग, २ भावना, ३ स्थितिस्थापक । इन में जो 'वेग' नाम का संस्कार है वह पृथ्वी, जल, तेज, वायु और मन इतने मूर्त्त द्रव्यों में ही रहता है और प्रयत्न एवं अभिघातविशेषात्मक संयोग से सहकृत कर्म से उस की उत्पत्ति होती है । वेग से अपने आधारभूत द्रव्य में नियत दिशा की प्रेरक क्रियापरम्परा उत्पन्न होती है । सस्पर्श द्रव्यसंयोग वेग का विरोधी होता है । बाणादि में जो वेग उत्पन्न होता है वह उस विशेष क्रिया से उत्पन्न होता है जो सिर्फ शरीरादिगत प्रयत्न से उत्पन्न होती है और इसी वेग के कारण गति करते हुए बाण का मध्य में पतन नहीं होता है । मध्य में पतन हुए विना नियत दिशाभिमुख गतिप्रेरक क्रियारूप कार्य के सम्बन्ध से बाणादि में 'वेग' संस्कार का सद्भाव अनुमित होता है । किसी वृक्ष की शाखा को कोई दुष्ट, पत्थर आदि से चोट लगाता है तब शाखाओं में जो कम्पनक्रिया उत्पन्न होती है उस से भी 'वेग' संज्ञक संस्कार का उद्भव होता है और वह शाखा-कम्पन से अनुमित होता है ।
'भावना' संज्ञक संस्कार आत्मा का गण है जो ज्ञान से उत्पन्न होता है और स्मृति-आदिज्ञान का उत्पादक भी होता है । पूर्व दृष्ट, अनुभूत अथवा पूर्वश्रुत पदार्थों के बारे में कालान्तर में स्मरण या प्रत्यभिज्ञा स्वरूप कार्य उत्पन्न होता है उस से 'भावना' संस्कार का अनुमान किया जा सकता है । 'स्थितिस्थापक' संस्कार यह मूर्त द्रव्यों का गुण है। यह संस्कार अपने कालान्तरस्थायी सघनअवयवरचनाविशिष्ट आश्रयभूत द्रव्य को पूर्व स्थिति में पुनः स्थापित करता है । तात्पर्य, किसी एक कुत्ते की दुम जैसे द्रव्य को कुछ समय तक प्रयत्नपूर्वक अन्य प्रकार से रखा जाय तो बाद में प्रयत्न छोड देने पर यह संस्कार पुनः उस को पूर्वस्थिति में ला कर रख देता है । देखने वाले जानते हैं कि दीर्घकालतक तालपत्र-भोजपत्रादि को वस्त्र में लपेट कर रखा जाता है तो वे गोल नलाकार धारण कर लेते हैं, बाद में जब वस्त्र को छोड कर जमीं पर उन्हें प्रयत्नपूर्वक सीधे दबाये जाते हैं तो कुछ देर तक सीधे रहते हैं लेकिन प्रयत्न छोड देने पर वह संस्कार पुनः उन को नलाकार स्थिति में स्थापित कर देता है । ऐसे ही दृढ अवयववाले धनुष्य, वृक्ष शाखा, बैल-शींग, हस्तीदन्त आदि जो स्वतः वक्र होते हैं, तथा गड्डी कर के रखा गया वस्त्रादि-उन्हें जोर से दबाने पर अल्प या अत्यल्प मात्रा में वे सीधे होते हैं किन्तु दबाव से मुक्त होने पर उस संस्कार के प्रभाव से पुनः अपनी पूर्व (वक्र) स्थिति को धारण कर लेते हैं । ऐसे
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