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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ सतां निराशंसतयाऽऽश्रितत्वानुपपत्तेः । नाप्यनुत्पन्नानाम्, निरुपाख्यतया तेषां तत्त्वाऽयोगात् । किञ्च, "बुद्धिः उपलब्धिः ज्ञानम् इत्यनर्थान्तरम्' (न्यायसूत्र १-१-१५) इति वचनाद् बुद्धेर्ज्ञानरूपता परैरभ्युपगता । न च तस्याः स्वसंविदितत्वमभ्युपगतम् बुद्ध्यन्तरग्राह्यतयाऽभ्युपगमात् । न च तथाभूतायास्तस्या रूपादिवद् बुद्धित्वं युक्तमिति प्राक् प्रतिपादितम् । सुख-दुःखेच्छा-द्वेषादीनां चाज्ञानरूपत्वे रूपादिवनात्मविशेषगुणताऽभ्युपगन्तुं युक्ता । ज्ञानरूपत्वे बुद्धर्भेदेनाभिधानमसंगतमेव, कञ्चिद् विशेषमुपादाय ज्ञानात्मकानामपि ततो भेदेनाभिधानेऽभिमानादीनामपि भेदेनाभिधानं कार्यमित्यलमतिजल्पितेन । गुरुत्व-द्रवत्व-स्नेहानां तु रूपादिवद् गुणरूपता प्रतिषेध्या । 'गुरुत्वं हि पृथिव्युदकवृत्ति पतनक्रियानिबन्धनम् । द्रवत्वं तु पृथिव्युदकज्वलनवृत्ति स्यन्दनहेतुः पृथिव्यनलयोनैमित्तिकम् अपां सांसिद्धिकम् । स्नेहस्त्वम्भसि एव स्निग्धप्रत्ययहेतुः' इत्यादिप्रक्रिया पृथिव्यादीनामाधारत्वनिषेधात् तद्गतरूपादिनिषेधाच्च निषिद्धैव, तन्न्यायस्यात्रापि समानत्वात् । का आश्रय बन सकेगा ? बुद्धिआदि जब एक बार उत्पन्न हो गये तो अब उन को किसी की आशंसा या परवा नहीं है, इस लिये किसी का आश्रित होने की जरूर भी नहीं है, आश्रित नहीं है तो उन का आश्रय कौन होगा ? यदि वे बुद्धि आदि अनुत्पन्न हैं, उस काल में तो वे निरूपाख्य यानी तुच्छ हैं अतः किसी के आश्रित होने की या उन के कोई आश्रय होने की कथा ही सम्भव नहीं है । उपरांत, न्यायसूत्र में कहा है कि बुद्धि, उपलब्धि या ज्ञान इनमें कोई अर्थान्तर नहीं है । इस वचन के आधार पर प्रतिपक्षियोंने बुद्धि को ज्ञानस्वरूप मान लिया है, किन्तु बुद्धि को स्वसंविदित स्वीकार नहीं किया, क्योंकि वे उस को अन्यबुद्धिवेद्य मानते हैं । हम पहले यह स्पष्ट कर आये हैं कि रूप-रसादि स्वसंविदित न होने से बुद्धि-आत्मक नहीं है वैसे ही बुद्धि स्वसंविदित न होने पर बुद्धिस्वरूप नहीं हो सकती । सुख-दुःखइच्छा-द्वेष तो ज्ञानस्वरूप ही हैं क्योंकि स्वसंविदित हैं, फिर भी प्रतिपक्षी उन्हें ज्ञानात्मक मानने को तय्यार नहीं हैं । यदि वे ज्ञानात्मक न माने जाय तो आत्मवृत्ति विशेषगुणरूप भी मानता ठीक नहीं है, क्योंकि रूपरसादि ज्ञानात्मक न होने से आत्मा के विशेषगुणरूप भी नहीं माने जाते । यदि सुखादि को ज्ञान रूप ही मान लेते हैं तो फिर उन का और ज्ञान का पृथक् पृथक् निरूपण करने की जरूर नहीं है । यदि ज्ञानात्मक होने पर भी किसी विशेषता को लेकर बुद्धि का पृथक् निरूपण करेंगे तो अब इतना ही कहना है कि किसी एक विशेषता को लेकर अभिमानादि की भी ज्ञान से पृथक् परिगणना करनी पडेगी, अधिक विस्तार की आवश्यकता नहीं है । * गुरुत्वआदि में गुणरूपता का प्रतिषेध * जैसे रूपादि में गुणरूपता का निषेध किया गया है वैसे गुरुत्व, द्रवत्व और स्नेह का भी प्रतिषेध जान लेना चाहिये । प्रतिवादी की यह प्रक्रिया है - "गुरुत्व पृथ्वी और जलद्रव्य में रहनेवाला गुण है और वह अधःपतन क्रिया का निमित्त है । द्रवत्व गुण है जो कि पृथ्वी, जल और सुवर्णात्मक तेजोद्रव्य, तीन में रहने वाला है । वह स्यन्दन यानी प्रवाहिपन का हेतु है । पृथ्वी और सुवर्ण में रहनेवाला द्रवत्व नैमित्तिक होता है, क्योंकि अग्निसंयोग से उत्पन्न होता है । जल में स्वभावतः द्रवत्व होता है, अतः उसे 'सांसिद्धिक' संज्ञा दी गयी है । स्नेह गुण तो सिर्फ जल में ही रहता है जो स्निग्धता की स्पार्शन बुद्धि का हेतु है ।" - इस प्रक्रिया का भी निषेध प्रगट है, क्योंकि पृथ्वी आदि में आश्रयता का निषेध किया जा चुका है और उन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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