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________________ १४४ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् कव्यापाराऽविषयत्वात्, पर्युदासरूपत्वेऽपि किमसौ पात एव उत पातादन्यत् पदार्थान्तरम् ? यदि पात एव तदा ‘स्थापकः स्थातुः पातं करोति' इति प्राप्तम् तथा च कथमसौ स्थापको भवेत् ? अथ पदार्थान्तरं पातादन्यदसौ करोति । नन्वेवं पदार्थान्तरकरणेऽपि स्थाता पतेदेव पदार्थान्तरोत्पादेऽपि तस्य त्राणाऽसम्भवात् । न च पदार्थान्तरेण स्थापकोत्पादितेन स्थातुः पातप्रतिबन्धः क्रियते इति वक्तव्यम्, तस्यापि पातादनन्यत्वे पात एव कृतः स्यात्, अन्यत्वे तेन तत्सम्बन्धाऽसिद्धेस्तत्करणेऽपि स्थातुस्तदवस्थ एव पातो भवेत् तेनापि अपरपातप्रतिबन्धकरणे तद्भिन्नाभिन्नविकल्पद्वयानतिवृत्तिद्वारेणानवस्थादिप्रसक्तिः । तन्न कश्चित् कस्यचित् स्थापकः । ___ किञ्च, भवेन्नाम बदरादेर्मूर्त्तद्रव्यस्याधोगमनप्रतिबन्धकत्वेन कुण्डादिराश्रयः, बुद्ध्यादेस्तु अमूर्तस्याधोगत्यभावात् किं कुर्वाणः आत्मादिराश्रयो भवेत् ? अपि, नोत्पन्नानां बुद्ध्यादीनां कश्चिदाश्रयः, * स्थिति-अस्थितिस्वभाव की स्थापकता दुर्घट * स्थिति के ऊपर थोडा और विचार करें - स्थापक आत्मा स्थितिस्वभाव बद्धि आदि की स्थापना करेगा या अस्थितिस्वभाव बुद्धि आदि की ? अस्थितिस्वभाव बुद्धि आदि की स्थापना किसी भी उपाय से शक्य नहीं है, क्योंकि स्वभाव का कभी अन्यथाकरण किसी उपाय से नहीं होता । यदि बुद्धि आदि स्थितिस्वभाव ही है तो बुद्धि आदि स्वयं स्थितिरूप होने से अपने आप बुद्धि आदि स्थितिसम्पन्न बने रहेंगे, फिर उसके लिये कुछ भी न कर सकनेवाले स्थापक आत्मा की फिजुल कल्पना क्यों की जाय ? यदि कहा जाय - ‘स्वयंस्थित गुण का पतन(नाश) न होने देना यही स्थापकता है अतः आत्मा अकिञ्चित्कर नहीं है ।' - यह ठीक नहीं है, क्योंकि पतनाभाव सर्वथा पतन का निषेधरूप यानी प्रसज्यप्रतिषेधरूप है, प्रसज्यप्रतिषेध स्वतः सिद्ध होता है, उसके लिये किसी कारक को कुछ कष्ट नहीं उठाना पडता । यदि पतनाभाव पर्युदासप्रतिषेधरूप माना जाय तो सम्भवित दो विकल्प हैं, १ पतनाभाव यानी पतन नहीं किन्तु पतन जैसा ही अन्य पतन, २ अथवा पतन से अन्य कोई पदार्थ । यदि प्रथम अर्थ लिया जाय तो फलित यह होगा कि स्थापक आत्मा पतनस्वरूप पतनाभाव का कारक है । जो पतन ही करानेवाला है उसको स्थापक मान सकते हैं क्या ? यदि दुसरा अर्थ ग्रहण करें, स्थापक आत्मा पात से भिन्न किसी अन्यपदार्थ का कारक है, तो अन्यपदार्थ का कारक भले हो किन्तु यहाँ जो स्थाता गुण है उसके पात को रोकेगा नहीं तो स्थाता गुण का पात होगा, अन्य पदार्थ के उत्पाद से उसका तो रक्षण नहीं होगा, तब वह स्थापक कैसे ? यदि कहा जाय कि स्थापक से उत्पादित अन्य पदार्थ स्थाता गुण के पतन को रोकेगा - तो यहाँ सोचना होगा कि पतनप्रतिबन्ध पतन से भिन्न होगा या अभिन्न ? यदि अभिन्न होगा तब तो प्रतिबन्ध करने का मतलब ‘पात करना' ही होगा । यदि भिन्न होगा तो उस प्रतिबन्ध के साथ पात का कोई रिश्ता न होने से प्रतिबन्ध करने पर भी स्थाता का पात तो तदवस्थ ही होगा, रुकेगा नहीं । यदि कहें कि - पहला प्रतिबन्ध दूसरे पातप्रतिबन्ध को उत्पन्न करेगा अतः पात रुक जायेगा - लेकिन दूसरे प्रतिबन्ध के ऊपर भी ‘पात से भिन्न-अभिन्न' ये दो विकल्पों का पंजा फैला हुआ है, अभिन्न पक्ष में पातकारकत्व प्रसक्त्त होगा, भिन्न पक्ष में और एक पातप्रतिबन्ध की कल्पना... फिर एक और पातप्रतिबन्ध... ऐसे तो अनवस्थादि दोष घुस जायेगा । इस पर इतना ही फलित होता है कि कोई किसी का स्थापक नहीं बन सकता । * बुद्धि आदि गुणों की समीक्षा * दूसरी बात - कुण्डादि बेर आदि मूर्त्तद्रव्य का आश्रय बन सकता है, क्योंकि वह उस की अधोगति को रोकने वाला है । किन्तु बुद्धि अमूर्त है, उस की अधोगति होती नहीं तो आत्मा क्या उपकार कर के उस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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