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पञ्चमः खण्डः - का० ४९ कार्यपेक्षाऽयोगात् । न च क्रम-योगपद्यव्याप्तकार्योत्पादनसामर्थ्यस्य नित्ये सम्भवः तत्र क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधस्य प्रतिपादितत्वात् । न च द्वितीयोऽपि पक्षो युक्तः, स्थितेः स्थातुरव्यतिरेकात् तस्य तद्धेतुत्वे स्थातृहेतुत्वमेव स्यात्, तच्च प्राक्तनन्यायेनाऽसंगतम् । न च परिनिष्ठितात्मरूपत्वात् स्थातुः कश्चिद्धेतुः सम्भवी, तत्र तस्याकिञ्चित्करत्वात् । व्यतिरेकेऽपि स्थितेः स्थातुर्न तेन किञ्चित् कृतं स्यात् स्थितेरर्थान्तरभूतायाः करणात् । एवं चाकिञ्चित्करः कथमाश्रयो बुद्ध्यादेरसौ भवेत् ? न च स्थितेस्तत्सम्बन्धितया करणात् तस्याऽसावुपकारकत्वादाश्रयः, तस्यास्तत्सम्बन्धित्वासिद्धेः, भिन्नायास्तदुपकाराभावे सम्बन्धाऽयोगात्, तत उपकारकल्पनायामनवस्थाप्रसक्तेः, समवायसम्बन्धस्य चाऽसिद्धेः । न च तस्य स्थितिं प्रति हेतुत्वमपि युक्तम् नित्यस्य क्वचिदपि सामर्थ्याऽयोगात् ।
किञ्च, स्थाप्यमानो बुद्ध्यादिः स्थितिस्वभावो वा तेन स्थाप्येत bअस्थितिस्वभावो वा ? यदि bअस्थितिस्वभावः नासौ केनचित् स्थापयितुं शक्यः तत्स्वभावाऽव्यतिक्रमात् । अथ स्थितिस्वभावः, तदा तत्स्वभावस्य स्वयमेव तत्स्वभावतया तस्य स्थितिसिद्धेः किमकिञ्चित्करस्थापककल्पनया ? अथ स्थातुः पाताभावं कुर्वन् स्थापको नाकिञ्चित्करः । न, पाताभावस्य प्रसज्यप्रतिषेधरूपत्वे कारही बुद्धि आदि गुणों की उत्पत्तिपरम्परा लगातार चलती रहेगी। तब निद्रा आदि का लोप हो जायेगा । सहकारी के विरह से कदाचित् बुद्धि आदि का उद्भव रुक जाने की बात मानी जायी तो उस में तथ्य नहीं है क्योंकि नित्य एवं व्यापक पदार्थ में सहकारी के योग से किसी अतिशय का आधान अशक्य होने से सहकारी की अपेक्षा ही संगत नहीं है । दूसरी बात यह है कि नित्य पदार्थ क्रमशः अथवा एक साथ सभी कार्यों का उत्पादन करने में समर्थ बन सके ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि क्रमशः अथवा एक साथ होने वाली अर्थक्रिया के साथ नित्यत्व का पक्का विरोध है, पहले यह कहा जा चुका है ।।
* आत्मा में गुणस्थिति का निमित्तभाव असंगत * दूसरा विकल्प-स्थिति के निमित्तरूप में आत्मा को उन गुणों का आश्रय मानना अयुक्त्त है, क्योंकि स्थाता गुण स्थिति से अतिरिक्त्त नहीं है अत: स्थिति का निमित्त जो होगा वह स्थाता गुण का भी निमित्त यानी उत्पत्तिहेतु मानना पडेगा । किन्तु प्रथम विकल्प में ही कह दिया है कि नित्य आत्मा से गुण की उत्पत्ति संगत नहीं है । दूसरी बात यह है कि स्थाता गुण अगर स्वयं में परिपूर्णरूपवाला है तो उस का उत्पादन ही अशक्य है, क्योंकि परिपूर्ण वस्तु को नया कुछ देने में कोई समर्थ नहीं है । स्थिति यदि गुण से भिन्न है तो स्थिति का निमित्त बनने वाला आत्मा उस गुण का तो कोई उपकार कर नहीं सकता, जो कुछ उपकार करेगा वह तो अर्थान्तरभूत स्थिति का करेगा, तब गुणों को आत्मा के साथ क्या रिश्ता रहेगा ? कुछ नहीं, तब अकिञ्चित्कर आत्मा बुद्धि आदि का आश्रय कैसे हो सकेगा ? यदि कहें कि - "स्थिति गुणसम्बन्धि है अत: स्थिति का उपकार परम्परया गुण पर होने से आत्मा बुद्धि आदि का आश्रय बन सकेगा' - तो यह बराबर नहीं है, क्योंकि भेद पक्ष में स्थिति गुणसम्बन्धि नहीं है, जो भिन्न है उसके ऊपर विना किसी उपकार के गुण उसका सम्बन्धि बन नहीं सकता, और विना उपकार के सम्बन्ध बैठेगा नहीं । यदि कुछ उपकार होने की कल्पना करेंगे तो उस उपकार को तत्सम्बन्धि होने के लिये और किसी उपकार की कल्पना, फिर उसके लिये भी अन्य उपकार.. ऐसे तो अनवस्था प्रसक्त होगी । समवाय सम्बन्ध को भूल जाईये क्योंकि वह तो सिद्ध ही नहीं है । तथा, कल्पित समवाय नित्य होने से पूर्वोक्त्त रीति से आत्मा की तरह समवाय भी स्थिति का हेतु नहीं बन सकता । नित्य पदार्थ में परमार्थतः कुछ भी अर्थक्रियासाधक शक्ति नहीं होती ।
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