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________________ १४२ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् तधर्मत्वं हेतुत्वेनेष्टं तदाऽसिद्धो हेतुः । न हि सन्तानादीनां पारमार्थिकनियतधर्मयोगित्वं सौगतं प्रति सिद्धम् । अथ सामान्येन हेतुस्तदा शशशृङ्गादावपि कल्पितनियतधर्मयोगित्वस्याभावत्वाऽमूर्त्तत्वादेः सद्भावादनैकान्तिकः । अथ न द्रव्यादव्यतिरेकप्रतिषेधमात्रं साध्यम् किं तर्हि ? द्रव्यव्यतिरेकित्वम् प्रतिषेधद्वयेन प्रकृतार्थगतेः । असदेतत् संख्यादेर्द्रव्याद् व्यतिरेकेणानुपलम्भादभावतो हेतोराश्रयासिद्धत्वप्रसक्तेः । न च द्रव्यात्मकत्वेन प्रतीयमानस्यापि संख्यादेर्भेदः साधयितुं शक्यः, तदात्मनस्ततो भेदे तस्य निःस्वभावताप्रसक्तेः । तन्न संख्यादयः परत्वाऽपरत्वपर्यन्ता द्रव्याद् व्यतिरेकिणः कुतश्चित् प्रमाणादवसीयन्ते इति न तथा ते सद्व्यवहारविषयाः । ये च बुद्ध्यादयः प्रयत्नान्ता आत्मसमवेतत्वेन तद्गुणा अभ्युपगताः ते तथाभूतात्मनिषेधादेव प्रतिषिद्धाः । तथाहि आत्मा एषामुत्पत्तिकारणत्वेन वाऽऽश्रयोऽभ्युपगम्येत, स्थितिनिमित्ततया वा ? न तावदाद्यः पक्षः, अविकलकारणतया बुद्ध्यादेः सर्वदैव सर्वस्योत्पत्तिप्रसक्तेः अनाधेयातिशयस्य सहके व्यवच्छेदक हैं अतः वे द्रव्यों से अव्यतिरेकी नहीं होते । इस प्रयोग में यदि संख्यादि में सिर्फ अव्यतिरेकित्व का निषेध ही सिद्ध करना अभिप्रेत हो तब तो सिद्धसाधन दोष ही होगा, क्योंकि बौद्धवादी तो इन सभी पदार्थों को काल्पनिक ही मानता है । काल्पनिक पदार्थ वस्तुभूत न होने से वह किसी से अभिन्न है या भिन्न - ऐसे विकल्पों का विषय बने यह इष्ट नहीं है, अतः अव्यतिरेकित्वविकल्प का निषेध उचित ही है । - यदि यह कहा जाय - समूह अथवा सन्तानादि (बौद्धाभिमत काल्पनिक पदार्थ) अभिन्न / भिन्न विकल्पों का अविषय नहीं होता क्योंकि वे प्रतिनियत भेदादिधर्म से अलंकृत होते हैं जैसे रूप - रसादि । अतः अव्यतिरेकित्व के विकल्प का निषेध संख्यादि की काल्पनिकता से प्रयुक्त नहीं हो सकता । तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रतिनियतधर्मयोगित्व हेतु का यदि यह मतलब हो कि वास्तविक नियतधर्मयोगित्व, तो हेतु में असिद्धि दोष होगा, क्योंकि तथागत मत में सन्तानादि में पारमार्थिकधर्मसहितत्व असिद्ध है । यदि सामान्यतः प्रतिनियतधर्मसहितत्व को हेतु किया जाय तब तो अभावत्व - - अमूर्त्तत्वादि कल्पित नियत धर्मों का योग शशसींग आदि में भी रह जाता है किन्तु वहाँ साध्य 'अभिन्न / भिन्न विकल्पों के अविषयत्व का अभाव नहीं है अतः हेतु साध्यद्रोही हो बैठेगा। यदि कहें कि पूर्वोक्त प्रयोग में द्रव्य से अव्यतिरेक का निषेधमात्र साध्य नहीं है । तो क्या साध्य है ? इस का उत्तर यह है कि दो निषेध प्रकृत अर्थ का विधायक होता है अतः यहाँ भी अव्यतिरेक के निषेध से व्यतिरेकित्व की सिद्धि अभिप्रेत है । तो यह कथन गलत है, क्योंकि संख्यादि कभी भी द्रव्य से भिन्नरूप में उपलब्ध नहीं होते अतः उस का अभाव फलित होने से हेतु में आश्रयासिद्धि दोष प्रवेश करेगा । संख्यादि द्रव्यात्मक ही होने का प्रतीत होता है अतः उन का द्रव्य से भेद का साधन शक्य नहीं है । यदि द्रव्यात्मक संख्या का द्रव्य से भेद होगा तो संख्यादि शशसींग तुल्य स्वभावविहीन हो जाने की विपदा होगी । निष्कर्ष संख्या से ले कर परत्वापरत्व तक के भाव किसी भी प्रमाण से द्रव्य से भिन्न प्रतीत नहीं होते, अतः वे भिन्न यानी स्वतन्त्र पदार्थ के रूप में 'सत्' व्यवहार के विषय नहीं बन सकते । * आत्मा में बुद्धि आदि की आश्रयता पर विकल्प : न्याय-वैशेषिक वादियों ने समवाय से आत्मा में रहने वाले बुद्धि से लेकर प्रयत्न तक गुणों का अंगीकार किया है । किन्तु नित्य व्यापक आत्मस्वरूप का निषेध हो चुका है अतः उसके गुणों का भी निषेध हो जाता है । कैसे यह देखिये - आत्मा को इन गुणों का आश्रय उत्पत्तिकारण के रूप में मानेंगे या स्थिति के निमित्तरूप में ? प्रथम विकल्प नहीं बैठेगा, क्योंकि नित्य आत्मस्वरूप अविकल कारण के रहते हुए सभी आत्मा में सर्वदा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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