________________
पञ्चमः खण्डः - का० ४९
१४१ भाविषु किंनिबन्धनोऽयं भवेत् ? न चैवं तत्रैकार्थसमवायादेस्तन्निबन्धनस्याभावात् । किञ्च, दिक्कालयोः पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वात् तद्धेतुकयोः परत्वाऽपरत्वयोरभाव इति कुतस्तन्निमित्तत्वाऽऽशङ्का येन हेतोरनैकान्तिकता स्यात् ? न च परमार्थतो दिक्कालयोः प्रदेशाः सन्ति यतस्तत्संयोगादपेक्षाबुद्धिसहितादुत्पत्तिस्तयोर्भवेत्, दिक्-कालयोरेकात्मकत्वेन निरवयवत्वाद् । न चार्थक्रियानिबन्धन उपचरितोऽवयवभेदो युक्तः अर्थक्रियाया वस्तुस्वभावप्रतिबद्धत्वात् उपचारस्य चाऽपारमार्थिकत्वात् । तत् कुतः अनैकान्तिकता प्रकृतहेतोः ? असिद्धता च परोपन्यस्तहेतोः पूर्ववद् वाच्या ।
"न संख्यादयो गुणा द्रव्याद् अव्यतिरेकिणः, तेषां तद्व्यवच्छेदहेतुत्वात् । यो हि यद्व्यवच्छेदको नासौ तदव्यतिरेकी, देवदत्तव्यवच्छेदकदण्डादिवत् । तथा च संख्यादयो द्रव्यव्यवच्छेदकाः तस्माद् न तदव्यतिरेकिणः" इत्यत्र प्रयोगे यदि द्रव्याद् अव्यतिरेकत्वनिषेधमात्रं साध्यं तदा सिद्धसाध्यता सर्वसंवृतिमतामवस्तुतया तत्त्वाऽन्यत्ववाच्यत्वेनाऽनिष्टेः । अथ 'समूह-सन्तानादयः तत्त्वान्यत्वाभ्यामवचनीया न भवन्ति, प्रतिनियतधर्मयोगित्वात् रूपादिवत्'; अत्रापि यदि पारमार्थिकनियकी स्वतन्त्रोपलब्धि न होने से आश्रय में भी परत्वादि के निमित्त से परापरभाव प्रतीति शक्य नहीं है तब परम्परया उस के निमित्त से नीलादि में गौण प्रतीति मानना कैसे युक्त होगा ?
* प्रतिवादिकल्पितपरत्वादिनिरपेक्ष साध्य निर्बाध है * तथा आत्मा में तो आप के मत से भी परत्वापरत्व नहीं है, तो आत्मगत सुखादिगुणों में परत्वादि की गौण प्रतीति किस निमित्त से होगी ? वहाँ तो एकार्थसमवाय से भी परापरप्रतीति का निमित्त परत्वादि विद्यमान नहीं है । दूसरी बात, आप के माने हुए दिशा और काल द्रव्य का तो पहले ही हम निषेध कर चुके हैं, अतः उन के समवेत कार्यभूत परत्व-अपरत्व भी सिद्ध नहीं है, इस स्थिति में वे परापर-भावप्रतीति के निमित्त होने की आशंका भी किस को ऊठेगी ? अब बताईये कि 'प्रतिवादिकल्पित परत्वादिनिरपेक्ष' यह हमारा साध्य कैसे बाधित है और हमारे प्रयोग में स्वभावहेतु भी कैसे साध्यद्रोही होगा ? वास्तव में तो आप के मत में निरवयव होने से दिशा और कालद्रव्य में कोई विभाग ही जब नहीं है तब उन के योग से अपेक्षाबुद्धि के सहकार से परत्वादि के उत्पाद की कथा ही कैसे बन पायेगी ?
यदि ऐसा कहें कि – 'यद्यपि दिशा और काल अखंड एक-एक द्रव्यरूप होने से निरवयव हैं, फिर भी परत्वादिजन्मानुकुल अर्थक्रिया उन से होती हैं, अतः उस अर्थक्रियाजन्म के लिये औपचारिक यानी काल्पनिक अवयवभेद भी मान लेंगे' – तो यह भी गलत है, क्योंकि अर्थक्रिया ठोस वस्तुस्वभाव पर निर्भर होती है न कि अवास्तविक वस्तु पर, जो औपचारिक है वह तो अवास्तविक होता है । इस स्थिति में प्रतिवादिकल्पितपरत्वादिनिरपेक्षतासाधक हेतु कैसे साध्यद्रोही हो सकता है ? पहले जैसे संयोग-विभागादि साधक हेतु में असिद्धि का उद्भावन कर दिखाया है वैसे यहाँ भी परत्वादिसाधक हेतु में असिद्धि दोष का आपादन कहा जा सकता है ।
* संख्यादिगुण द्रव्य से सर्वथा व्यतिरिक्त नहीं है * संख्यादि गुण द्रव्य से अव्यतिरिक्त नहीं हैं - यह सिद्ध करने के लिये किसीने यह प्रयोग किया है - संख्यादि गुण द्रव्य से अव्यतिरेकी नहीं है, क्योंकि संख्यादि तो द्रव्यों के व्यवच्छेदक (संख्यादि शुन्य वस्तु से भिन्नता-ज्ञापक) हैं । जो जिस का व्यवच्छेदक होता है वह उस से व्यतिरेकी नहीं होता । उदा० दण्ड, देवदत्त को अदण्डी लोगों से भिन्न प्रसिद्ध करता है और वह देवदत्त से अव्यतिरेकी नहीं होता । संख्यादि भी द्रव्यों
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org