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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् अन्यत्र तु गृहीतस्यापि व्यवहाराऽयोग्यत्वेन निश्चयानुत्पत्तेरगृहीतकल्पत्वात् । ननु अवयव्यभावे बहुषु परमाणुषु अक्षव्यापारेण ‘एको घटः' इति कथं प्रत्ययः ? न, अनेकसूक्ष्मतरपदार्थसंवेदनतः ‘एकः' इति विभ्रमोत्पत्तेः, प्रदीपादौ नैरन्तर्योत्पन्नसदृशापरापरज्वालादिपदार्थसंवेदनेऽपि एकत्वविभ्रमवत् । ननु भेदेनानुपलक्ष्यमाणाः परमाणवः कथमध्यक्षाः ? न, विवेकेनाऽनवधार्यमाणस्यानध्यक्षत्वे प्रदीपादौ पूर्वापरविभागेनानुपलक्ष्यमाणेऽनध्यक्षताप्रसक्तेरवयवविवेकेन वाऽगृह्यमाणोऽप्यवयवी कथं तथाप्रत्यक्षत्वेनेष्टः ?
यदि च नीलादिनिर्भासे नाऽणवः प्रतिभान्ति तदा बाह्यार्थवादिना नीलादिज्ञानं निर्विषयं वाऽभ्युपगम्येत सविषयं वा ? न तावनिर्विषयम् विज्ञानवादप्रसक्तेरेव । बाह्यविषयत्वेऽपि नीलादिविषयः स्थूलरूपतया प्रतिभासमानः Aएक Bअनेको वा ? एकोऽपि अवयवैरारब्धः, अनारब्धो वा ? ।
(A)तत्र न तावत् अयमुभयरूपोऽप्येको युक्तः, स्थूलस्यैकस्वभावत्वविरोधात् । तथाहि – यदि स्थूलमेकं स्यात् तदा एकदेशरागे सर्वस्य रागः प्रसज्येत, एकदेशाऽवरणे च सर्वस्यावरणं भवेत् कैसे मंजुर हो सकेगा ? – तो इस का जवाब यह है कि परमाणुओं का हर एक सम्भवित आकार से प्रत्यक्ष होता ही है, फिर भी दिशाभेद से उनका प्रत्यक्ष (=निर्विकल्पज्ञान) नहीं होने का कारण यह है कि अति अभ्यास आदि कारणों के बल पर जिस अंश को लेकर निश्चय (=सविकल्पज्ञान) पैदा होता है उसी अंश में प्रत्यक्ष की विषयता घोषित की जाती है, अन्य अंशों का प्रत्यक्ष होने पर भी व्यवहारयोग्यता न होने के कारण उनका निश्चय न हो सकने से वे अंश गृहीत होने पर भी अगृहीततुल्य समझे जाते हैं।
प्रश्न :- जब आप अवयवी नहीं मानते तब अनेक परमाणुओं पर दृष्टिपात होते समय ये बहुत हैं' ऐसी प्रतीति होनी चाहिये उसके बदले 'एक घडा' ऐसी एकत्व की प्रतीति कैसे हो सकती है ?
उत्तर :- इस प्रश्न की कोई कीमत नहीं है । जैसे दीपज्योत आदि के बारे में प्रतिक्षण लगातार अनेक नयी नयी समानाकार ज्वालाआदि की उत्पत्ति होती है यह मान्य होने पर भी उस के संवेदन के समय एकत्व का विभ्रम होना सुविदित है; इसी तरह यहाँ अनेक परमाणुओं का संवेदन होने पर भी नैकट्य के कारण एकत्व का विभ्रम होने में कोई आश्चर्य नहीं है ।
प्रश्न :- जैसे भिन्न भिन्न दो घडे पृथक् पृथक् उपलब्ध होते हैं वैसे पुञ्जगत परमाणु परस्पर भिन्नरूप से उपलब्ध नहीं होते. तो उन को कैसे प्रत्यक्ष माना जाय ?
उत्तर :- यदि आप ऐसा समझ बैठे हैं कि पृथकरूप से जिस का उपलम्भ नहीं होता उसका प्रत्यक्ष भी नहीं हो सकता, तो दीपज्योत आदि के बारे में भी पृथक्रूप से पूर्व-अपर के भेद से उसकी उपलब्धि न होने से उस के भी प्रत्यक्ष का भंग प्रसक्त्त होगा । उपरांत, अवयवों से पृथक् अवयवी भी कहीं उपलब्ध नहीं होता तो कैसे यह आप को प्रत्यक्षरूप से मान्य होगा ?!
* अणुपरोक्षतावाद में अनुपपत्तियाँ * परमाणु को सर्वथा परोक्ष माननेवाले बाह्यार्थवादी के सामने ये दो विकल्पप्रश्न हैं – नील-पीतादि के प्रतिभास में जब अणु भासित नहीं होता तो उस वक्त जो नीलादि ज्ञान होता है वह निर्विषय होता है या सविषय ? यदि निर्विषय मानेंगे तो जगत् निराकार विज्ञानमात्र मानने की विपदा घेर लेगी । सविषय पक्ष में भी यदि सिर्फ ज्ञानमात्रविषयक मानेंगे तो भी विज्ञानवाद मंजुर करना पडेगा । सविषय यानी बाह्यार्थविषयक मानेंगे तो स्थूलरूप से भासमान नीलादि विषय का स्वीकार करना होगा । वहाँ ये दो विकल्प प्रश्न खडे होंगे, वह भासमान नीलादि Aएकव्यक्ति रूप है या Bअनेकव्यक्तिरूप ? एक व्यक्ति पक्ष में भी वह अवयवारब्ध एक व्यक्तिरूप
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