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पञ्चमः खण्डः - का० ४९
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न च गुणेषु 'पृथक्' इति प्रत्ययो भाक्तः मुख्यप्रत्ययाऽविशिष्टत्वात् । 'पृथक्' इत्यपोद्धारव्यवहारस्य स्वरूपविभिन्नपदार्थनिबन्धनत्वात् परोपन्यस्तानुमाने प्रतिज्ञाया अनुमानबाधा । तथा च प्रयोगः - ये परस्परव्यावृत्तात्मानः ते स्वव्यतिरिक्तपृथक्त्वानाधाराः यथा सुखादयः, परस्परव्यावृत्तात्मानश्च घटादय इति स्वभावहेतुः । एकस्यानेकवृत्त्यनुपपत्तिः, सम्बन्धाभावश्च समवायस्य प्रतिषेत्स्यमानत्वात्, सुखादिषु तद्व्यवहाराभावप्रसक्तिश्च विपर्यये बाधकं प्रमाणम् । तन्न पृथक्त्वं गुणः तत्साधकप्रमाणाभावाद् बाधकोपपत्तेश्चेति व्यवस्थितम् ।
अप्राप्तिपूर्विका प्राप्तिः संयोगः, प्राप्तिपूर्विका चाऽप्राप्तिर्विभागः । तौ च द्रव्येषु यथाक्रमं 'संयुक्तविभक्त' प्रत्ययहेतू अन्यतरोभयकर्मजौ संयोगविभागजौ च यथाक्रमम् । न च संयोगविभागयोः सत्त्वप्रतिपादकप्रमाणाऽविषयत्वात् सद्व्यवहाराऽविषयता शशविषाणवत् इति वाच्यम्, संयोगस्य द्रव्ययोविशेषणत्वेनाध्यक्षतः प्रतीयमानत्वात् । तथाहि - कश्चित् केनचित् "संयुक्ते द्रव्ये आहर' इत्युक्तो ययोरेव द्रव्ययोः संयोगमुपलभ्य(?भ)ते ते एव आहरति न द्रव्यमात्रम् । अन्यथा हि यत्किञ्चिदाहरेत् । वस्त्रादि में भी परस्परव्यावृत्तिमूलक 'पृथक्' व्यवहारसिद्ध हो सकता है, इस स्थिति में साध्य के न होने पर भी हेतु विलक्षणबोधग्राह्यत्व रह जायेगा तो साध्यद्रोह दोष होगा, यह स्पष्ट है । गुणों में जो 'पृथक्' ऐसा बोध होता है उसे औपचारिक नहीं बता सकते, क्योंकि मुख्य पृथक्त्व के बोध से यहाँ कोई वैसदृश्य नहीं होता । जब यह फलित हो गया कि 'पृथक्' इस प्रकार अपोद्धारव्यवहार स्वतःव्यावृत्तपदार्थमूलक ही होता है तब परवादी के अनुमान की प्रतिज्ञा दूसरे अनुमान से बाधित हो जाती है । उस दूसरे अनुमान का प्रयोग देखिये - जो परस्पर व्यावृत्तस्वभाव वाले होते हैं वे अपने से अतिरिक्त पृथक्त्व के आश्रयभूत नहीं होते जैसे सुखादि, घटादि भी परस्परव्यावृत्तस्वभाव ही होते हैं । यह स्वभावहेतुक अनुमान है । इस में व्यावृत्तस्वभावात्मक हेतु से अतिरिक्त पृथक्त्व का निषेध सिद्ध होता है जिस से अतिरिक्तपृथक्त्व होने की यानी विपर्यय की कल्पना की जायेगी तो उस में बहुत से बाधक प्रमाण हैं । जैसे - १ एक, पृथक्त्व की अनुयोगी-प्रतियोगी अनेक में वृत्ति एकदेश या अखंड रूप से संगत नहीं हो पायेगी । २ अतिरिक्त पृथक्त्व का अपने आश्रय के साथ कोई सम्बन्ध मेल नहीं खायेगा । ३ समवाय की कल्पना करेंगे लेकिन उस का अभी आगे निषेध किया जानेवाला है । ४ सुखादि गुणों में अतिरिक्त पृथक्त्व न होने से उस के व्यवहार के भंग की विपदा होगी । निष्कर्ष, पृथक्त्व कोई स्वतन्त्र गुण नहीं है, क्योंकि उस का साधक प्रमाण नहीं है और बाधक प्रमाण लब्धप्रसर है।
* संयोग के साधक प्रमाण * संयोग-विभाग :- पूर्व में अप्राप्त (दूरस्थित) द्रव्यों की एक-दूसरे को प्राप्ति यानी नैरन्तर्य हो जाना यह संयोग है, प्राप्त द्रव्यों की अप्राप्ति विभाग गुण है । 'ये संयुक्त है' इस प्रकार की प्रतीति का विषयभूत निमित्त संयोग है, संयुज्यमान किसी एक द्रव्य में या सभी द्रव्यों में संयोगानुकुल यानी अन्योन्यसन्मुख गतिप्रेरक वेग की जनक क्रिया उत्पन्न होती है वह संयोग की जनक होती है । भित्ति और हस्त का संयोग एकद्रव्यनिष्ठक्रियाजन्य होता है, मेषद्वयसंयोग उभयनिष्ठकर्मजन्य होता है । 'ये विभक्त हैं' इस प्रतीति का विषयभूत निमित्त विभाग है, हस्त-भित्ति विभाग हस्तगतक्रिया से उत्पन्न होता है, मेषद्वयविभाग उभयनिष्ठक्रिया से उत्पन्न होता है । ऐसा कहना कि – संयोग और विभाग 'सत्' व्यवहार के योग्य नहीं है क्योंकि सत्त्वसाधकप्रमाण के अपात्र हैं, उदा०
- दृष्टव्यं न्यायवार्त्तिके २-१-३१ सूत्रस्य ।
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