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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् व्यापकविरुद्धोपलब्धिः । परित्यक्ताऽनभिभूतस्वभावत्वाभ्युपगमेऽपि सिद्धमस्यान्यत्वम् स्वभाव-भेदस्य भावभेदलक्षणत्वात्, अन्यथाऽतिप्रसंगात् ।
न च स्वतन्त्रेच्छामात्रभाविनः षष्ठीवचनभेदादेर्बाह्यवस्तुगतभेदाऽव्यभिचारित्वम् येन ततो गुणगुणिनोर्भेदसिद्धिः स्यात् । तेन 'यद् यद् व्यवच्छिन्नम्' इत्यादिप्रयोगानुपपत्तिः । यदि तु वस्तुगतभेदमन्तरेण षष्ठ्यादिवृत्तिर्न भवेत् ‘स्वस्य भावः' 'षण्णां पदार्थानामस्तित्वम्' 'दाराः' 'सीकताः' इत्यादौ षष्ठ्यादेवृत्तिर्न स्यात् भावादेस्त्र व्यतिरिक्तस्य तन्निबन्धनस्याभावात् । अथ सदुपलम्भकप्रमाणविषयत्वं धर्मान्तरं षण्णामस्तित्वमिष्यत इति न हेतोर्व्यभिचारः । न, सप्तमपदार्थप्रसक्तेः षट्पदार्थाभ्युपगमो के बाद वह नष्ट होता है और अन्य श्यामादिरूप का उद्भव होता है, इसी तरह वस्त्रधावन की सामग्री से वहाँ केसरी रूप का नाश हो कर शुक्लादि रूप की उत्पत्ति होती है, ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं है । यदि यह पूछा जाय कि - "एक पक्ष में केसररञ्जित वस्त्र में पूर्व रूप का अभिभव हो जाने से अनुपलम्भ होता है, पश्चात् वस्त्रधावन के बाद अभिभव न रहने पर पुनः प्रगट होता है । इस तथ्य का आप निषेध करते हैं और कहते हैं कि वस्त्र धुलाई के बाद पूर्वरूप नष्ट हो कर अन्य रूप उत्पन्न होता है जो उपलब्ध होता है - तो पूर्व पक्ष के निषेध में और अपने पक्ष के समर्थन में आप के पास क्या प्रमाण है ? तो जवाब है अनुमानप्रमाण का सद्भाव । यहाँ व्यापक विरुद्ध उपलब्धिस्वरूप हेतु का प्रयोग देखिये – 'जो अनभिभूतस्वभावत्यागी नहीं है उस का कभी दूसरे से अभिभव शक्य नहीं है । जैसे, केसररञ्जन के पहले वस्र का रूप अनभिभूतस्वभावत्यागी नहीं था तो रूप का अभिभव भी नहीं था । जिस को प्रतिवादी (केसर रञ्जित दशा में) अभिभवावस्था कहते हैं उस अवस्था में वह रूप अनभिभूतस्वभावत्यागी नहीं है (यदि त्यागी है तब तो स्वभावत्यागरूप नाश सिद्ध हो जायेगा) अतः दूसरे से अभिभव भी नहीं है । (फलतः अभिभव के बदले, अनुपलब्धि से नाश मानना होगा ।) यहाँ पराभिभव व्यापक है जिस का विरोधी है अनभिभूतस्वभाव का अत्याग, उस की उपलब्धि से व्यापक का अभाव सिद्ध किया जाता है । यहाँ यदि ऐसा कहें कि 'अभिभवावस्था में हम अनभिभूतस्वभाव का परित्याग ही मानते हैं, अतः आपने जो कहा कि 'उस अवस्था में वह रूप अनभिभूतस्वभावत्यागी नहीं है' यह गलत है -- तो यह समझ लो कि स्वभावत्याग से वस्तुभेद होता है इसलिये अनायास ही अभिभवावस्था में रूपभेद यानी पूर्वरूपनाश, नये रूप की उत्पत्ति सिद्ध हो जाती है । यदि स्वभावभेद से वस्तुभेद नहीं मानेंगे तब तो दूध और दही इत्यादि में भेद का उच्छेद हो जायेगा, यह अतिप्रसंग होगा ।
* षष्ठीविभक्तिप्रयोग भेदसाधक नहीं है * ___पहले जो यह कहा था कि -- ‘उत्पल का रूप' यहाँ छट्ठी विभक्ति के प्रयोग से तथा 'पृथिव्यां रूपरस-गन्ध-स्पर्शाः' यहाँ गुणी के लिये एकवचन और गुणों के लिये बहुवचन के प्रयोग से गुणी और गुणों में भेद सिद्ध होता है -- वह ठीक नहीं है क्योंकि 'राहु का सिर' यहाँ अभेद होने पर भी छट्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है, तथा 'मिट्टी के घट-शराव' यहाँ अभेद होने पर भी एकवचन-बहुवचन का भेद किया जाता है -- इससे यह सिद्ध होता है कि छट्ठीविभक्ति प्रयोग अथवा वचनभेद वक्ता की स्वतन्त्र इच्छा पर निर्भर रहते हैं, वस्तुगत भेद के साथ उन का रिश्ता नहीं है, अर्थात् छट्ठीविभक्तिप्रयोग एवं वचन-भेद वस्तुभेद के अविनाभावि नहीं है । अतः उन से गुण और गुणी के बीच भेदसिद्धि शक्य नहीं है । इस लिये पहले जो प्रयोग कहा था कि जो जिस से भिन्न प्रतीत होता है वह उस से भिन्न होता है जैसे देवदत्त से अश्व... इत्यादि, वैसा प्रयोग असंगत ठहरता है। यदि माना जाय कि – वस्तुगत भेद के विना छट्ठीविभक्तिप्रयोग आदि
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