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पञ्चमः खण्डः
का० ४९
लक्षितसमवायः, तत्समवेतं वा सामान्यम्, एतच्चेतरव्यवच्छेदकमेषां लक्षणम् । तथाहि - पृथिव्यादीनि मनः पर्यन्तानि इतरेभ्यो भिद्यन्ते 'द्रव्याणि' इति वा व्यवहर्त्तव्यानि द्रव्यत्वाभिसम्बन्धात्, यानि तु नैवं न च तानि द्रव्यत्वाभिसम्बन्धवन्ति यथा गुणादिवस्तूनि इति केवलव्यतिरेकिहेतुबलात्, पृथिव्यादीनि द्रव्याणि गुणादिभ्यो व्यावृत्तरूपाणि सिद्धानि । पृथिव्यादीनामपि भेदवतां पृथिवीत्वाभिसम्बन्धादिकं लक्षणमितरेभ्यो भेदव्यवहारे तच्छब्दवाच्यत्वे वा साध्ये केवलव्यतिरेकिरूपं द्रष्टव्यम् । अभेदवतां त्वाकाश-काल- दिग्द्रव्याणामनादि - सिद्धतच्छब्दवाच्यता द्रष्टव्या ।
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नवैव चैतानि द्रव्याणि, न्यूनाधिकत्वप्रतिपादकप्रमाणाभावे परस्परव्यावृत्तनवलक्षणयोगित्वात्, उभयाभिमतनवघटादिवत् । एवं रूपादयश्चतुर्विंशतिगुणाः । उत्क्षेपणादीनि पञ्च कर्माणि पराऽपरभेदभिन्नं भी सत् होता है वह नित्य होता है' । ( २ ) अनेक परमाणु से निष्पन्न होनेवाले द्व्यणुकादि कार्य द्रव्य अनित्य होता है । तदुपरांत, आकाशादि पाँच द्रव्य नित्य ही होता है, क्योंकि उन की कभी भी नयी उत्पत्ति नहीं होती ।
इन नव द्रव्यों में द्रव्यत्वजाति के सम्बन्ध से द्रव्यरूपता होती है । द्रव्यरूपता के प्रयोजक द्रव्यत्वाभिसम्बन्ध के दो अर्थ हो सकते हैं, १द्रव्यत्वरूप सामान्य से उपलक्षित समवायात्मक सम्बन्ध, २ अथवा द्रव्य में समवेत द्रव्यत्वरूप सामान्य । यही द्रव्यत्वाभिसम्बन्ध नव द्रव्यों का साधारण लक्षण है, जो कि गुणादि पदार्थों से उन का भेदक या व्यवच्छेदक बन जाता है । जैसे देखिये इस प्रकार व्यतिरेक अनुमान हो सकता है कि पृथ्वी से ले कर मन तक के पदार्थ अन्य (गुणादि) से व्यावृत्त हैं, अथवा 'द्रव्य' व्यवहार के योग्य हैं क्योंकि द्रव्यत्वाभिसम्बन्धवाले हैं । जो द्रव्यरूप नहीं होते वे ( गुणादि) द्रव्यत्वाभिसम्बन्धवाले भी नहीं होते जैसे गुण-कर्म आदि । इस प्रकार केवलव्यतिरेकी हेतु के बल से पृथ्वी आदि, गुणादिव्यावृत्तरूप से द्रव्यस्वरूप सिद्ध होते हैं ।
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जैसे द्रव्यों में गुणादिभेद और द्रव्यस्वरूपता सिद्ध की गयी है वैसे ही पृथ्वी में जलादिभेद एवं पृथ्वीव्यवहार, तथा जलादि द्रव्यों में जलादीतरभेद एवं जलादिव्यवहार सिद्ध करने के लिये पृथ्वीत्वादिसम्बन्धरूप लक्षण को केवलव्यतिरेकी हेतु बना कर अनुमान से उन में स्वेतरभेदव्यवहार अथवा पृथ्वी आदिशब्दवाच्यता का निरूपण किया जा सकता है । पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आत्मा और मन ये छ: द्रव्य परस्पर भिन्न तो है ही किन्तु प्रत्येक में अनन्त भेद हैं इस लिये उन की सिद्धि केवलव्यतिरेकी हेतु से बतायी गयी है । आकाशकाल और दिशा द्रव्य स्वयं एक एक अभिन्न ही हैं उन में जो आकाशादिशब्दवाच्यता है वह अनादिसिद्ध है । (दिशा में जो पूर्व - उत्तरादि भेद हैं और काल में अतीतादि भेद हैं वे सब व्यवहार के लिये वैशेषिकमत में काल्पनिक हैं ।)
* नव द्रव्य, २४ गुण, पंच कर्म इत्यादि *
ये द्रव्य नव ही हैं । हेतु नव से न्यून अथवा अधिक द्रव्यसंख्यासाधक कोई प्रमाण नहीं है और एक-दूसरे से भिन्न भिन्न ऐसे 'समवायिकारणत्व' आदि नव लक्षण में से एक एक स्वतन्त्रलक्षण को एक एक द्रव्य ने धारण किया है । जैसे कि उभय मत सम्मत घटपटादि नव वस्तु ( अथवा नव ग्रह या नव निधान ) ।
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द्रव्य के बाद गुण पदार्थ आता है, गुण रूप - रसादि २४ हैं । पाँच कर्म ( क्रियाएँ) हैं - उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण और गमन । सामान्य नाम के पदार्थ के दो भेद हैं १ परसामान्य यानी सत्ता और २ अपरसामान्य द्रव्यत्व, गुणत्व आदि । यह सामान्य अनेक समान पदार्थों में समानाकार बुद्धि यानी अनुगतज्ञान का कारण
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