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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् नन्वेव यदि कार्यारम्भस्तदा 'द्रव्याणि द्रव्यान्तरमारभन्त द्वे बहूनि वा समानजातीयानि' इत्यभ्युपगमः परित्यज्यताम् यतो न परमाणु-ट्यणुकादीनामपरित्यक्ताजनकावस्थानामनङ्गीकृतस्वकार्यजननस्वभावानां च व्यणुक-त्र्यणुकादिकार्यनिर्वर्त्तकत्वम्, अन्यथा प्रागपि तत्कार्यप्रसंगात् । ___ अथ न तेषामजनकावस्थात्यागतो जनकस्वभावान्तरोत्पत्तौ कार्यजनकत्वं, किन्तु पूर्वस्वभावव्यवस्थितानामेव संयोगलक्षणसहकारिशक्तिसद्भावात् तदा कार्यनिर्वर्तकत्वम्, प्राक् तु तदभावान कार्योत्पत्तिः कारणानामविचलितस्वरूपत्वेऽपि । न च संयोगेन तेषामनतिशयो व्यावय॑ते अतिशयो वा कश्चिदुत्पाद्यते अभिन्नो भिन्नो वा; संयोगस्यैवाऽतिशयत्वात् । न च कथमन्यः संयोगस्तेषामतिशय इति वाच्यम् अनन्यस्याप्यतिशयत्वायोगात्, न हि स एव तस्याऽतिशय इत्युपलब्धम् । तस्मात् तत्संयोगे सति कार्यमुपलभ्यते तदभावे तु नोपलभ्यते इति संयोग एव कार्योत्पादने तेषामतिशय इति न तदुत्पत्तौ तेषां स्वभावान्तरोत्पत्तिः, संयोगातिशयस्य तेभ्यो भिन्नत्वादिति । असदेतत् - जो कि संख्या, गुरुत्व और परिमाण में बिलकुल समान है वैसे तन्तुपिण्डों से उत्पन्न होने वाले वस्त्रादि कार्यों में शिथिलावयवसंयोगात्मकप्रचय से जन्य महत्त्व उपलब्ध होता है, अन्यत्र कहीं नहीं होता ।
* स्वभावपरिवर्तन से कार्यसाधकता, शंका-समाधान * प्रतिवादी :- इस ढंग से आपने जो कार्यद्रव्य का आरम्भ दिखाया उस में तो आप का जो यह सिद्धान्त है कि 'समानजातीय दो या दो से अधिक द्रव्यों से अन्यद्रव्य का उद्गम होता है' इस सिद्धान्त को आप छोड दीजिये । कारण, परमाणु अथवा व्यणुक आदि से व्यणुक अथवा त्र्यणुकादि कार्य का निष्पादन तभी शक्य है जब वे परमाणु आदि अपनी पूर्वकालीन अजननावस्था का परित्याग करके व्यणुकादिकार्यजननस्वभाव का अंगीकार करे । यदि पूर्व अजननस्वभाव को छोड कर नूतन जननस्वभाव का अंगीकार किये विना ही परमाणुआदि व्यणुकादिकार्य के निष्पादन करने में लग जायेंगे तो जब वे पृथक् पृथक् बिखरे हुए थे तब भी अपने अपने कार्य के निष्पादन में लग जाने की दुर्घटना स्थान लेगी । ___ वादी :- ऐसा नहीं है कि 'परमाणुआदि उपादानद्रव्य अजननावस्था त्याग कर के जननस्वभाव को अपना कर ही कार्य को जनम दे सकते हैं । स्वभावपरिवर्तन के विना भी, पूर्वस्वभाव में ही रह कर, परस्पर संयोगात्मक सहकारी के प्रभाव से ही वे कार्य का निष्पादन कर सकते हैं । यह सहकारी पूर्वकाल में नहीं होता, इसलिये उस काल में कार्योत्पत्ति की दुर्घटना को अवकाश नहीं रहता । कारणसमुदाय तो उस वक्त भी तदवस्थ ही होता है । ऐसा भी नहीं है कि 'कारणों में पूर्वावस्था में जो अनतिशय था वह संयोग के द्वारा खदेड दिया जाता है, अथवा कारणों से भिन्न या अभिन्न ऐसा कोई नया अतिशय उत्पन्न किया जाता है' । अतिशय ही मानना हो तो उस संयोग को ही अतिशय के रूप में मान लो । ऐसा प्रश्न मत करो कि कारणों से भिन्न ऐसे संयोग को कारणों के अतिशय रूप में कैसे मान लिया जाय ?' – यदि भिन्न संयोग ‘अतिशय' नहीं बन सकता तो अभिन्न कोई पदार्थ भी कैसे 'अतिशय' हो सकता है ? अभिन्न का मतलब है स्वयं वह पदार्थ, वह स्वयं अपना अतिशय बन जाय ऐसा कहीं देखा नहीं है । निष्कर्ष – परमाणुआदि द्रव्यों के संयोग के होने पर कार्य उपलब्ध होता है और संयोग के अभाव में वह कार्य उपलब्ध नहीं होता, इसलिये निश्चित होता है कि वह संयोग ही कारणों का अतिशय है जिस से कार्य का उद्भव होता है । भिन्न संयोग की उत्पत्ति होती है इसलिये कारणों के स्वभाव में कोई परिवर्तन की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि संयोगरूप अतिशय कारणों से भिन्न है ।
प्रतिवादि :- यह वादिकथन गलत है।
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