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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् कथंचिद्भेदोऽपि रूपाद्यात्मना द्रव्यस्वरूपस्य रूपादीनां च द्रव्यात्मकतया प्रतीतेः, अन्यथा तदभावापत्ते ॥२४॥
सीसमईविप्फारणमेत्तत्थोऽयं कओ समुल्लावो ।
इहरा कहामुहं चेव णत्थि एवं ससमयम्मि ॥२५॥ ततः शिष्यबुद्धिविकाशनमात्राऽर्थोयं कृतः प्रबन्धः इतरथा कथैवैषा नास्ति स्वसिद्धान्ते 'किमेते गुणा गुणिनो भिन्नाः आहोस्विद् अभिन्नाः' इति, अनेकान्तात्मकत्वात् सकलवस्तुनः ॥२५॥ एवंरूपे च वस्तुतत्त्वे अन्यथारूपं तत् प्रतिपादयन्तो मिथ्यावादिनो भवन्तीत्याह -
ण वि अत्थि अण्णवादो ण वि तव्वाओ जिणोवएसम्मि ।
तं चेव य मण्णंता अवमण्णंता ण याणंति ॥२६॥ __यदि भिन्न गुणों को अमूर्त मानेंगे तो उनका किसी को भी प्रत्यक्षात्मक ग्रह नहीं हो सकेगा, जैसे अमूर्त आकाश का चाक्षुषादिप्रत्यक्ष नहीं होता । इन दोषों से बचने के लिये बहुत आवश्यक है कि द्र के बीच कथंचिद् भेद और कथंचिद् अभेद माना जाय । यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो उपरोक्त्त दोष ज्यों के त्यों रहेंगे । देखिये - 'द्रव्यमेकम् = द्रव्य एक है, गुणा: बहवः = गुण अनेक हैं' इस प्रकार क्रमशः द्रव्य में एकत्व की प्रतीति होती है जब कि उसी द्रव्य के गुणों के बारे में अनेकत्व की प्रतीति होती है, ऐसी भिन्न भिन्न प्रतीति से यह सिद्ध होता है कि द्रव्य और गुण में कथंचिद् भेद है । तथा, रूपादि गुणों द्रव्यमय होने की प्रतीति और द्रव्य रूपादिगुणमय होने की प्रतीति होती है, इस से यही सिद्ध होता है कि द्रव्य और गुणों में अत्यन्त भेद नहीं है किन्तु कथंचिद् अभेद भी है । यदि कथंचिद् अभेद नहीं मानेंगे तो द्रव्य में गुणमयत्व और गुणों में द्रव्यमयता की जो प्रतीति होती है उस का अभाव हो जायेगा, मतलब वैसी प्रतीति उत्पन्न नहीं हो पायेगी ॥२४॥
* जैन दर्शन में सर्वत्र पदार्थों में अनेकान्तवाद * __ मूलगाथार्थ :- शिष्यबुद्धिवैशद्य के लिये इतना विस्तार किया, बाकी हमारे सिद्धान्त में ऐसी कथा का मुँह तक नहीं है ॥२५॥ ___व्याख्यार्थ :- गुण-गुणी के भेदाभेद की उपरोक्त चर्चा का एक मात्र यही प्रयोजन है - अव्युत्पन्न शिष्यों की बुद्धि को अनेकान्तवाद के बहुमूल्य संस्कारों से विकसित करना । अन्यथा, हमारे जैन दर्शन में सकलवस्तुओं की अनेकान्तगर्भता इतनी सुप्रसिद्ध है कि 'ये गुण गुणी से भिन्न हैं या अभिन्न हैं' ऐसी चर्चा को अवकाश ही नहीं मिलता । जैनदर्शन के व्युत्पन्न विद्वानों की बातों में तो स्थान स्थान में - 'कथंचिद् भिन्नाभिन्न, कथंचिद सदसत कथंचिद नित्यानित्य. अमक अपेक्षा से अच्छा लेकिन अमुक अपेक्षा से बुरा' इत्यादि प्रकार से स्याद्वाद ही झलकता रहता है ॥२५॥ ___ उपरोक्त प्रकार से वस्तुतत्त्व अनेकान्तमय है यह सिद्ध होने पर भी जो लोग वस्तु के बारे में विपरीत प्रतिपादन करते हैं वे अवश्य मिथ्यावादी होते हैं, यह अब कहते हैं - - अनेकान्त-व्यवस्थायामुपाध्याययशोविजयैरत्राधिकविस्तरो प्रपंचितो यथा 'एतच्च विवक्षामात्रेणोच्यतेऽन्यथा जात्यन्तरात्मके वस्तुनि
भेदाभेदादन्यतरकथाया एवाऽसम्भवात् । न हि चित्रं वस्तु नीलपीताद्यन्यतरतया कथ्यते चर्च्यते वा, एकतरजिज्ञासया केवलं तथा प्रतीयत इति ।'
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