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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् अपरस्य फलान्तरस्याऽनुत्पत्तिप्रसक्तेः । यदि च विद्यमाना एकतन्तुप्रवेशक्रिया न फलोत्पादिका, विनष्टा सुतरां न भवेत् असत्त्वात् अनुत्पत्त्यवस्थावत् न ह्यनुत्पन्नविनष्टयोरसत्त्वे कश्चिद् विशेषः । ततः प्रथमक्रियाक्षणः केनचिद् रूपेण द्रव्यमुत्पादयति, द्वितीयस्त्वसौ तदेव अंशान्तरेणोत्पादयति अन्यथा क्रियाक्षणान्तरस्य वैफल्यप्रसक्तेः । एकेनांशेनोत्पन्नं सद् उत्तरक्रियाक्षणफलांशेन यद्यपूर्वमपूर्वं तद् उत्पद्येत तदोत्पन्नं भवेत् नान्यथेति प्रथमतन्तुप्रवेशादारभ्यान्त्यतन्तुसंयोगावधिं यावद् उत्पद्यमानं प्रबन्धेन तद्रूपतयोत्पन्नम्, अभिप्रेतनिष्ठारूपतया चोत्पत्स्यत इत्युत्पद्यमानम् उत्पन्नमुत्पत्स्यमानं च भवति, एवमुत्पन्नमपि उत्पद्यमानमुत्पत्स्यमानं च भवति, तथोत्पत्स्यमानमपि उत्पद्यमानमुत्पन्नं चेत्येकैकमुत्पन्नादिकालत्रयेण यथा त्रैकाल्यं प्रतिपद्यते तथा विगच्छदादिकालत्रयेणाप्युत्पादादिरेकैकः त्रैकाल्यं प्रतिपद्यते । ___ तथाहि - यथा यद् यदैवोत्पद्यते तत् तदैवोत्पन्नम् उत्पत्स्यते च । यद् यदैवोत्पन्नं तत् तदैव भूत-भविष्य-वर्त्तमानकाल को ले कर भी - कालिकभाव प्राप्त करते हैं - यह दिखाते हुए कहते हैं - __मूलगाथार्थ :- उत्पत्ति के क्रिया काल में द्रव्य को 'उत्पन्न' दिखानेवाला और विनाशक्रिया काल में द्रव्य को विनष्ट दिखानेवाला (पुरुष) तीनों काल को विषय के रूप में विशेषित करता है ॥३७॥ ___व्याख्यार्थ :- कोई एक वस्त्र द्रव्य अपनी उत्पत्तिक्रिया के काल में भी 'उत्पन्न' होता है - इस तथ्य की पुष्टि में कह सकते हैं कि वस्त्रनिर्माण के लिये ऊर्ध्वतन्तुसमूह के भीतर जब प्रथम तीरछे तंतु का प्रवेश कराया जाता है उस समय वह वस्त्र द्रव्य उतने अंश में, (मानों तिरछे हजार तंतुओ का वस्त्र बनने वाला है तो १०००वे अंश में,) उस वस्त्र को 'उत्पन्न' समझना चाहिये । यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो उत्तरकाल में दूसरे, तीसरे यावत् चरम तन्तु का प्रवेश कराने पर भी वह अनुत्पन्न ही रहेगा, फलत: वह वस्त्र सदा के लिये सर्वथा अनुत्पन्न होने का अतिप्रसंग होगा । ऐसा नहीं है कि - प्रथमतन्तुप्रवेश होने पर जितने अंश में वह वस्त्र उत्पन्न हुआ, नये नये तन्तुप्रवेशकाल में भी उसी अंश में पुनः पुनः उस वस्त्र की उत्पत्ति ही चलती रहे - यदि ऐसा मानेंगे तो सर्वथा एकतन्तुमात्रप्रमाण वस्त्रादि द्रव्य की उत्पत्ति होने का अतिप्रसंग होगा । कारण, उत्तरोत्तर तन्तुप्रवेश क्रिया सिर्फ एक तन्तुमात्रप्रमाण वस्त्रोत्पादन करके क्षीण होती रहेगी, फलतः तन्तुद्वयप्रमाण या तन्तत्रयप्रमाण आदि नये नये फलस्वरूप वस्त्र का उत्पादन ही नहीं हो पायेगा । अब यह सोचिये कि अपनी विद्यमानता में भी एक तन्तुप्रवेशक्रिया अगर फलोत्पादन नहीं करती तो विनष्ट होने के बाद तो सुतरां नहीं कर पायेगी क्योंकि अनुत्पन्नअवस्था की तरह विनष्ट अवस्था भी असत् है । अनुत्पन्न और विनष्ट इन दोनों अवस्था के असत्त्व में कोई फर्क नहीं है, जिस से कि यह आशा कर सके कि अनुत्पन्न अवस्था में भले कार्य न हो सके लेकिन विनष्ट अवस्था में तो हो सकेगा ! इस से यह निष्कर्ष फलि
कर्ष फलित होता है कि प्रथम क्रियाक्षण कछ अंश में द्रव्य का उत्पादन करता है . द्वितीय क्रियाक्षण उसी द्रव्य को कुछ अन्य अंश में उत्पन्न करता है; ऐसा यदि नहीं मानेंगे तो द्वितीयक्षण की क्रिया से उसी अंश में द्रव्य की पुन: उत्पत्ति मानने पर निष्फलता का कलंक लगेगा । सम्पूर्ण वस्त्र की उत्पत्ति की आशा तब कर सकते हैं जब कि एक अंश में वस्त्र उत्पन्न होने के बाद उत्तरोत्तर क्रियाक्षणों के द्वारा अपूर्व-अपूर्व अंश से उस द्रव्य की उत्पत्ति होने का स्वीकार किया जाय, अन्यथा वैसी आशा व्यर्थ होगी । इस प्रकार प्रथमतन्तुप्रवेश से ले कर अन्तिमतन्तुसंयोगपर्यन्त वह द्रव्य परम्परया उत्पद्यमान रह कर उत्पन्न होता है तथा जिन अंशो से उत्पन्न होना बाकी है उन अंशो से उत्पत्स्यमान (=भविष्य में उत्पन्न होने वाला) रहता है ।- इस प्रकार समुच्चयरूप से देखा जाय तो यह कह सकते हैं कि एक ही द्रव्य जब उत्पद्यमान-अवस्था
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