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पञ्चमः खण्डः - का० ३७ तादितायाः, अन्यथा वर्तमानवत् तदभावात् । न च तत्पर्यायस्यातीतानागतकालयोरभावे कथं नित्यत्वमिति वाच्यम्, कथंचित् तस्याभ्युपगमात् परित्यक्तोपादित्स्यमानपूर्वोत्तरपर्यायस्यान्यान्यवेषपरित्यागोपादानैकनटपुरुषवद् द्रव्यस्य विवर्त्तात्मकत्वात् । सर्वथा नित्यत्वे पूर्वोत्तरव्यपदेशाभावप्रसक्तेः । सर्वथाऽनित्यत्वेऽप्युभयत्रैकप्रतिभासव्यपदेशादिव्यवहाराभावश्च स्यात् । न चैकानेकत्वप्रतिभासो मिथ्या । ततो यदेव विनष्टं शिवकरूपतया तदेवोत्पन्नं मृद्रव्यं घटादिरूपतया अवस्थितं च मृत्त्वेनेति त्र्यात्मकं तत् सर्वदा द्रव्यमिति व्यवस्थितम् ॥३६॥
यथोत्पाद-व्यय-स्थितीनां प्रत्येकमेकैकं रूपं तथा भूत-वर्तमान-भविष्यद्भिरप्येकैकं रूपं त्रिकालतामासादयतीत्येतदेवाह -
उप्पज्जमाणकालं उप्पण्णं ति विगयं विगच्छन्तं ।
दवियं पण्णवयंतो तिकालविसयं विसेसेइ ॥३७॥ उत्पद्यमानसमय एव किंचित् पटद्रव्यं तावदुत्पन्नं - यद्येकतन्तुप्रवेशक्रियासमये तद् द्रव्यं तेन रूपेण नोत्पन्नं तर्तृत्तरत्रापि तन्नोत्पन्नमित्यत्यन्तानुत्पत्तिप्रसक्तिस्तस्य स्यात् । न चोत्पन्नांशेन तेनैव पुनस्तदुत्पद्यते तावन्मात्रपटादिद्रव्योत्पत्तिप्रसक्तेरुत्तरोत्तरक्रियाक्षणस्य तावन्मात्रफलोत्पादने एव प्रक्षयाद् कैसे घटेगी ? अतीतत्व द्रव्यविनाशमूलक है और अनागतत्व द्रव्योत्पादमूलक है, ऐसा अगर नहीं मानेंगे तो वर्तमान में जैसे उत्पाद-विनाशअन्यतरमूलकत्व नहीं होता वैसे ही अतीत-अनागत में भी क्रमशः विनाशोत्पादमूलकत्व नहीं रहेगा ।
* वर्तमान पर्याय की त्रैकालिकता कैसे ? * यदि कहें कि - 'वर्त्तमानपर्याय अतीत-अनागत काल में नहीं रहेगा तो वर्तमानपर्याय को नित्य कैसे बता सकेंगे ?' – तो ऐसा प्रश्न असार है क्योंकि कोई बात एकान्तग्रस्त नहीं है, वर्तमान पर्याय को अतीतअनागत में कथंचित् विद्यमान होने का इन्कार नहीं करते । जैसे एक ही नटपुरुष पूर्ववेष को बदल कर नये वेष का अंगीकार करता है वैसे ही द्रव्य भी विवर्त्तात्मक (यानी बार बार अपनी अवस्था का परिवर्तन करनेवाला) होने से पूर्व पर्याय का त्याग और उत्तर पर्याय का ग्रहण करता रहता है अतः द्रव्य के रूप में उस से कथंचिद अभिन्न वर्तमान पर्याय को नित्य भी मान सकते हैं। लेकिन एकान्त नित्य मानेंगे तो 'पूर्वावस्था'
'उत्तरावस्था' ऐसा वचनप्रयोग भी शक्य नहीं रहेगा. क्योंकि एकान्त नित्य पदार्थ सर्वकालव्यापी होता है । यदि उसे एकान्ततः अनित्य माना जाय तो वह भी संगत नहीं है, क्योकि पूर्वोत्तर अवस्थाओं में जो एक ही नटपुरुष का या द्रव्य का प्रमाणभूत प्रतिभास एवं उस के एकत्व का व्यवहार होता है उसके न होने की आपत्ति होगी । कथंचिद् एकत्व का प्रतिभास भी होता है और कथंचिद् भेद का प्रतिभास भी होता है, दोनों ही सापेक्ष होने से, उन में से एक को भी मिथ्या नहीं कह सकते ।
निष्कर्ष यह है कि पूर्वकालीन शिबकअवस्थाधारी के रूप में जो मिट्टी द्रव्य विनष्ट हुआ वही घटावस्थाधारी के रूप में उत्पन्न हुआ और मिट्टी के रूप में अवस्थित रहता है, इस प्रकार द्रव्यमात्र उत्पादादित्रयात्मक होने का सिद्ध होता है ।।३६।।।
* त्रिकालविशेषित द्रव्य की प्रज्ञापना * उत्पाद-व्यय और स्थिति, इन तीनों के एक एक का स्वरूप जैसे त्रयात्मक है, वैसे ही वह एक एक
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