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पञ्चमः खण्डः - का० २९ त्वात् । ततोऽपर्यायेष्वपि 'न विद्यन्ते अर्चि-मुर्मुरादयो विवक्षितपर्याया येषु पुद्गलेषु तेष्वपि' अविभक्तश्रद्धानं यत् तदपि भावत एव भवेत् 'अर्चिष्मानयं भावो भूतो भावी वा' इति । तन्नाऽव्यापकोऽनेकान्तवादः ॥२८॥ __ नन्वेकान्तस्य व्यापकत्वे 'गच्छति-तिष्ठति' इत्यत्राप्यनेकान्तः स्यात्, तथाभ्युपगमे च तयोरभावप्रसक्तिः - इत्येतदेवाह -
गइपरिगयं गई चेव केइ णियमेण दवियमिच्छंति ।
तंपि य उड्डगईयं तहा गई अनहा अगई ॥२९॥ 'गतिक्रियापरिणामवद् द्रव्यं गतिमदेव' इति केचिद् मन्यन्ते, तदपि गतिक्रियापरिणतं जीवद्रव्यं कर देखा जाय तो समग्र जीवराशि की अपेक्षा सभी जीव एक ही हैं । इस तरह छ कायों में जो वर्णादिभेद है उस की अविवक्षा होने पर पुद्गलरूप से ही उस की विवक्षा करने पर वे काय भी एक ही हैं, उन में कोई भेद नहीं है । 'क्या जीव अजीव भी होता है' ? इस प्रश्न का भी यही उत्तर है कि जीव और पुद्गल के प्रदेश परस्पर अविभक्तरूप से आकाशप्रदेशों में रहते हैं, इस परस्पर अविभाज्यता के जरिये जीव को कथंचिद् अजीव भी कह सकते हैं । तथा, एक एक जीव व्यक्ति को किसी विवक्षावश प्राधान्य दिया जाय तब निकायरूप में ज्ञात जीवसमूह की विवक्षा न करने पर जीव में कथंचिद् अनिकायत्व भी मान सकते हैं । इसी तरह, व्याख्याकार कहते हैं कि शास्त्रोक्त विधान के अनुरूप प्रवृत्ति करनेवाला जो अत्यन्त सावधान अप्रमत्त साधु है उसकी नदी उत्तरण आदि प्रवृत्ति में जीव-घात अनिवार्यरूप से हो जाने पर भी वह हिंसा हिंसा नहीं है किन्तु फलतः अहिंसा ही है, इसलिये वहाँ जीवघात होने पर भी अधर्म नहीं होता । इस मीमांसा से यह सिद्ध होता है कि जो 'छ जीवनिकाय' की और 'जीवघात होने पर अधर्म होने' की बात ऊपर अतिगाढ श्रद्धा कर लेता है वह परमार्थ से तात्त्विक सम्यग्दृष्टि नहीं है । यदि वैसी श्रद्धा करनेवाला कदाग्रही नहीं है, सिर्फ 'भगवान
कहा है। ऐसा समझ कर वह तथोक्त श्रद्धा धारण करता है तो उसकी श्रद्धा में जिनवचनरुचि का स्वभाव अखंड होने से उस को 'द्रव्यसम्यग्दृष्टि' कहा जा सकता है । यहाँ 'द्रव्य' का मतलब है भविष्य में अनेकान्तसिद्धान्त का ज्ञान प्राप्त होने पर भाव में परिणत होनेकी योग्यता रखने वाली श्रद्धा ।
तथा अदग्ध या अर्धदग्ध काष्ठ-तृणादि के पुद्गलद्रव्य में अभी वर्तमान में अग्नि या अग्निकण स्वरूप पर्याय विद्यमान नहीं है, वैसे तृण-काष्ठादि के विषय में 'ये पुद्गल अग्निमय बन चुके हैं या बनेंगे' ऐसी जो अविभक्त यानी अभेदावगाही ज्ञानात्मक श्रद्धा है वह अतात्त्विक नहीं किन्त तात्त्विक ही है। निष्कर्ष, छ जीवनिकाय और अहिंसा का सिद्धान्त भी अनेकान्तगर्भित होने से अनेकान्तवाद भलीभाँति व्यापक है यह सिद्ध होता है ॥२८॥
* गति परिणाम और अगति का अनेकान्त * प्रश्न – अनेकान्त व्यापक है इसलिये जो 'गमन करता है' वह 'गमन नहीं करता है तथा जो 'खडा है' वह 'खडा नहीं है' इस प्रकार यहाँ भी अनेकान्त मानना पडेगा । यहाँ अनेकान्त मानने का नतीजा यह होगा कि गति के होने पर भी गति-अभाव और स्थिति के होने पर भी वहाँ स्थिति-अभाव प्रसक्त होंगे - इसका क्या ?
उत्तर - ग्रन्थकार कहते हैं - मूलगाथार्थ - कुछ लोग गतिपरिणत द्रव्य को गतिशील ही मानते हैं । (किन्तु) वह भी किसी एक उर्ध्वादिदिशा
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