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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् सर्वतो गमनाऽयोगाद् ऊर्ध्वादिप्रतिनियतदिग्गतिकं तैर्वादिभिरभ्युपगन्तव्यम् । एवं च तत् तथा = प्रतिनियतदिग्गमनेनैव गतिमत्; अन्यथाऽपि गतिमत् स्यात् तदाऽभिप्रेतदेशप्राप्तिवद् अनभिप्रेतदेशप्राप्तिरपि तस्य भवेदित्यनुपलभ्यमानयुगपद्विरुद्धोभयदेशप्राप्तिप्रसक्तेरत्राप्यनेकान्तो नाऽव्यापकः । 'अभिप्रेतगतिरेव तत्राऽनभिप्रेताऽगतिरि'ति चेत् ? न, अनभिप्रेतगत्यभावाभावे प्रतिनियतगतिभाव एव न भवेत् तत्सद्भावे वा तदवस्थोऽनेकान्तः ॥२९॥
स्यादेतद् –'दहनाद् दहनः पवनात् पवनः' इत्यत्राप्यनेकान्ते दहनादावदहनादेविरुद्धरूपस्य सम्भवात् में ही गतिकारक होगा, अर्थात् उस दिशा में गतिकारक और तदन्य दिशा में गतिहीन ही होगा ॥२९।।
व्याख्यार्थ - जिस द्रव्य में गमनक्रिया के परिणाम का उद्भव हआ उस द्रव्य को उस वक्त कुछ एकान्तवादी नियमतः यानी एकान्तत: गतिशील ही मानते हैं । किन्तु अनेकान्तवादी कहते हैं कि वह गतिपरिणत जीवद्रव्य गमन करेगा तो कौन सी दिशा में ? सभी दिशाओं में एक साथ तो नहीं जा सकता, किसी एक ही ऊर्ध्व आदि दिशा में वह जा सकता है, इस बात में एकान्तवादी को भी सम्मति देना ही पडेगा । अब सोचिये कि यहाँ अनेकान्त कैसे है - जिस दिशा में वह जायेगा, उस को छोड कर शेष दिशाओं में तो गति का अभाव है ही । इस प्रकार गतिवाले में भी अन्यदिक्गमनाभाव की प्रसक्ति कोई आपत्ति नहीं अपि तु इष्टापत्ति ही है । यदि विवक्षित एक दिशा में जानेवाला जीवद्रव्य अन्य दिशाओं में भी उसी काल में गति करेगा तो जैसे उस द्रव्य को विवक्षित दिशा में गमन करने से वांछित देश की प्राप्ति होती है वैसे अन्य दिशाओं में आवांछितदेश की प्राप्ति भी प्रसक्ति होगी - यह एकान्तवाद के सिर पर दूषण है । एक काल में परस्पर विरुद्ध दिशावाले देश की उपलब्धि न होने पर भी उपरोक्त अनिष्ट प्रसंग यही सूचित करता है कि गति (और उसी प्रकार स्थिति) के बारे में अनेकान्त ही है अत: वह कहीं भी अव्यापक नहीं है।
* एकदिशा में गमन-अन्यदिशा में अगमन, सर्वथा एक नहीं है * शंका :- यदि एक द्रव्य में गति और गति-अभाव ऐसे परस्पर विरुद्ध दो धर्म का समावेश सिद्ध हो तब अनेकान्तप्रवेश होगा किन्तु यहाँ तो एक ही विवक्षितदिगगमनरूप जो धर्म है वही अन्य दिशा में अगमनरूप * अन्यथा चागतिमदेव, अन्यथापि यदि गतिमत् स्यात्.... इत्यनेकान्तव्यवस्थायाम् पाठः । Hएतदने श्रीमदपाध्यायैरधिकमुपदर्शितमनेकान्तव्यवस्थाग्रन्थे तच्चैवम "नन गतिमदेवेत्येकान्तेन गतिसामान्यवति गतिसामान्याभावो निषिध्यते, स च गतिविशेषाभावेन नाऽपोद्यते, न हि विशेषाभाव एव सामान्याभावः, इति कोऽयमनेकान्त इति चेत् ? न, गतिसामान्यवत्यपि गतिविशेषाभावेन भावाभावोभयरूपतासमावेशादेवानेकान्तसाम्राज्यात् । न च विशेषाभावेभ्यः सामान्याभावोऽपि सर्वथातिरिक्तः, किन्तु यावद्विशेषाभावाधिकरणावच्छेदेनातिरिक्तो यत्किञ्चिद्विशेषाभावाधिकरणावच्छेदेन चानतिरिक्त इति गतिसामान्यवति विशेषरूपेण तत्सामान्याभावोऽपि न दुर्लभः । 'गतिमति गतित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावनिषेधान्नैकान्तव्याघात' इति चेत् ? न, सामान्यरूपेण विशेषाभावमादायेत्थमपि वक्तुमशक्यत्वात् । ‘गतित्वावच्छिन्नगतिसामान्यनिष्ठप्रतियोगिताकाभावेन सह गतिसामान्यविरोधैकान्त एव' इति चेत् ? न, सामान्यावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वस्याधिकरणविशेषावच्छेदेनैव सम्भवात्, तत्तदधिकरणान्तर्भावेन विरोधाऽविरोधयोरप्यनेकान्तस्यैव साम्राज्यात् । यदि च सामान्यावच्छिन्नप्रतियोगिताकोऽभावोऽतिरिक्त एव तदा 'द्रव्यविशेष रूपं न तु द्रव्यसामान्ये' इति प्रतीत्या सामान्यावच्छिन्नाधिकरणताकोऽप्यभावोऽतिरिक्तोऽभ्युपगन्तव्यः । तस्मादभावस्य सामान्याधिकरणकत्वस्य सामान्यप्रतियोगिकत्वस्य स्वतः सामान्यविशेषभावस्य चानेकान्तक्रोडीकृतत्वाद् भावाभावयोर्विरोधाऽविरोधावपि तादृशावेवेत्यभिप्रायात् । एतेन भावाभावसामान्ययोरेव विरोधकल्पनाद् भेदाभेदाद्यनेकान्तसमावेशोऽप्रामाणिक: – इत्यपास्तम्, विरोधस्यापि विशेषविश्रान्तत्वेन यथानुभवं गुणगुण्यादि-भेदाभेदाद्यविरोधकल्पन एव लाघवादित्यधिक मत्कृतनयरहस्ये ।"
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