Book Title: Sandesha Rasaka
Author(s): Abdul Rahman, Jinvijay, H C Bhayani
Publisher: Bharatiya Vidya Bhavan

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Page 193
________________ ३६ सन्देश रासक कहउ पहिय कि 'ण कहउ कहिसु किं कहिययण, जिण किय' एह अवत्थ 'नेहरइरहिययण' ॥ ९१ ॥ जिणि हउ विरहह कुहरि एव करि घल्डिया, अत्थलोहि' अकयत्थि इकल्लिय" मिल्हिया " । 10 12 संदेसडर सवित्थरु तुहु" उत्तावलउ, कहि पहिय पिय गाह वत्थु तह" डोमिलउ ॥ ९२ ॥ * तइया" निवडंत" णिवेसियाई संगमइ जत्थ हु हारो । इन्हि " सायर - सरिया " - गिरि-तरु- दुग्गाई अंतरिया " ॥ ९३ ॥ 1Aकन । 2 A जिणि । 3 A कय; C कहिय । 4 B हरय; C हदय । 5 A मण। 6 A जिग। 7 A विरहु; B विरह । 8 B एम। 9 C °लोह अक° | 10 A इकल्ली । 11 A मिल्हीआ; C नास्ति पदमिदम् । 12 A C तुह । 13 B तहि । 14 A C तईया | 15 C तवत | 16 A इन्हें । 17 A सरीआ । 18 B अंतरियं । 1 [ द्वितीय प्रक्रम [ टिप्पनकरूपा व्याख्या ] कथनीयं तद् हे मृगनेत्रे ! कथय । भो पथिक ! कथयामि, [ किंवा न कथयामि १ ], परं कथयिष्ये । अथवा स्नेहरतिरहिताय तस्मै कथितेन किम् । येनैषाऽवस्था कृता ॥ ९१ ॥ [ ९२] येनार्थलोमेन कामिनी मुक्ता । विरहगर्त्तायां क्षिप्ता । संदेशकस्तु [निस्ती]र्णः, त्वं तुच्छ ( त्सु) कः । परं तस्मै एकां गाथां [ वस्तुकं ] डोमिलकं च वदेः ॥ ९२ ॥ [९३] पूर्वसुखानुभवं स्मारयन्ती दुःखं प्रकटमाह - तदा त्वयि निव (बि) डं यथानिवेसि (शि) ते अवषो (आवयो) रन्तरे हारो न सङ्क्रान्तः । इदानीं सागरसरित् दुर्गादि अन्तरितम् ॥ ९३ ॥ 不夺农夺本 [ अवचूरिका ] 冬冬冬冬冬 मीयं तम्मम कथय । हे पथिक ! कथयामि किं न कथयामि वा ?, परं कथयिष्ये, तेन कथितेन किम् । स्नेह [रति]रहितेन येनैषाऽवस्था कृता ॥ Jain Education International [ ९२] विरहकुहरे - विरहगर्त्तायां येनाहं क्षिप्ता । एवं कृत्वा - क्षिश्वा, अर्थलोभात् अकृतार्थेनैकाकिनी मुक्ता । सन्देशकं (कः ) सविस्तरः, त्वमुच्छ (सु) कः । प्रियाय कथेः (थयेः) - गाथ वस्तुकं च डोमिलम् ॥ [ ९३] पूर्वसुखानुभवं स्मारयन्ती दुःखं प्रकटमाह - यदा त्वयि निवडत - यथानिवेक्षित भावयोरन्तः हारो न संक्रान्तः, इदानीं सागरसरिद्भिरितरुदुर्गाश्रान्तरिताः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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