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सम्यक्त्वशल्योद्धार
| पडले आदि उपकरण सहित है । और प्रभु के पास इनमें से कोई भी उपकरण नहीं है, तथा प्रभु को चामर होते हैं, मस्तकों पर छत्र होते हैं, पीछे भामंडल होता है, धर्मध्वज, धर्मचक्र प्रभु के आगे चलता है, रत्नजडित सिंहासनों पर प्रभु विराजते है, देव दुंदुभि बजती है, देवता जलथल के उत्पन्न हुए पांच वर्ण के पुष्पों की वर्षा करते हैं, ध्वनि | पूरते हैं, अशोकवृक्ष से छाया करते हैं, चलने वक्त प्रभु के आगे नव कमल की रचना करते हैं, इत्यादि अनेक अतिशयों सहित तीर्थंकर भगवान् हैं । और साधुओं के पास तो इनमें से कुछ भी नहीं होता है। तो जेठमल ने साधु को वीतराग का नमूना कैसे ठहराया ? नहीं साधु वीतराग का नमूना कदापि नहीं हो सकता है । परंतु पद्मासनयुक्त जिनमुद्रा | शांत दृष्टि सहित वीतराग सदृश जो अरिहंत की प्रतिमा है, सो तो उसका नमूना सिद्ध हो सकता है । और साधु का नमूना साधु, परंतु जमालिमती गोशालकमती आदि नहीं, यह बात तो सत्य है । जैसे वर्तमान समय में साधु का नमूना परंपरागत साधु होते हैं, सो तो खरा, परंतु जिनाज्ञा के उत्थापक, जमालि गोशालकमती सदृश ढूंढक कुलिंगी है, सो नहीं । तथा वीतराग की प्रतिमा आराधने से वीतराग आराध्य होता है, जैसे | अंतगडदशांगसूत्र में सुलसा के अधिकार कहा है कि हरिणैगमेषी की प्रतिमा की | आराधना करने से हरिणैगमेषीदेव आराध्य हुआ, वैसे ही जिनप्रतिमा को वंदन पूजनादि | से आराधने से सो भी सम्यग्दृष्टि जीवों को आराध्य होता है ।
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तथा जेठमल लिखता है कि प्रतिमा को वंदना करने वास्ते संघ निकालना किसी जगह भी नहीं कहा है" उसका उत्तर तो हम प्रथम लिख चूके है; परंतु जब तुम्हारे साधु साध्वी आते हैं तब तुम इकट्ठे होके लेने को जाते हो और जब जाते हैं। तब छोड़ने को जाते हो । तथा मरते हैं तब विमान वगैरह बना के अनेक आदमी | इकट्ठे होकर दुसाले डालते हो । जलाने जाते हो तथा कई जगह पूज्य की तिथि पर इकट्ठे हो कर पोसह करते हो । इस तरह आनंद कामदेवादि श्रावकों ने सिद्धांतों में किसी जगह किया कहा हो तो बताओ ? और हमारे श्रावक जो करते हैं, सो तो सूत्रपंचांगी तथा सुविहिताचार्यकृत ग्रंथों के अनुसार करते हैं ।
॥ इति ॥
१४. नमो गंभीए लिनीए इस पाठ का अर्थ :
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चौदह में प्रश्नोत्तर में जेठे मूढमति ने लिखा है कि " भगवती सूत्र की आदि में ( नमो बंभीए लिवीए) इस पाठ से गणधरदेव ने ब्राह्मीलिपि के जानकार श्रीऋषभदेव को नमस्कार किया है, परंतु अक्षरों को नमस्कार नहीं किया है; इस बात ऊपर अनुयोगद्वारसूत्र की साख दी है कि जैसे अनुयोगद्वार में पाथेका जानने वाला पुरुष सो ही पाथा, ऐसे कहा है वैसे ही इस ठिकाने भी लिपि का जानकार पुरुष, सो लिपि कहिये, और उस को नमस्कार किया है।" उत्तर- जो लिपि के जानकार को नमस्कार
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