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सवैये
माखन सहत पीव गसत असंख जीव, कुगुरु कुपंथ लीव यही वानी वाची है। विदल निगल रस गसत असंख तस, रसना रसक रस स्वादन में राची है। त्रसन की खान है संधान महा पापखान, जाने न अज्ञान एतो मूरी जैसे काची है। फेर मूढ़ दया दया रटत है रातदिन, दया का न भेद जाने दया तोरी चाची है ।।१।।
प्रथम जिनेश बिंब मूढमति करे निंद, मनमत धार चिंद लोग करे हासी है। गौतम सुधर्मस्वामी भद्रबाहु गुणधामी, उमास्वाति शुद्धख्याति निंद परे फासी है। हरिभद्र जिनभद्र अभैदेव अर्थ कीध, मलैगिरि हैमचंद्र छोर ओर भासी है। विना गुरु पंथ काढ़ जगनाथ मत फाढ़, फेर कहे दया दया दया तोरी मासी है ।।२।।
उसन उदक नित भोगत अमित चित, अरक सिरक लीत चरुत अनाई है। चलत अनेक रस दधि तक्र कांजीकस, कंदमूल पूर कूर उतमति आइ है । बैंगन अनंतकाय खावत है दौर धाय, मनमें न घिन काय ऊंधी मति छाई है। फेर मूढ दया दया रटत है निशदिन, दया का न भेद जाने दया तोरी ताई है ।।३।।
लिखत सिद्धांत जैन मनमांही अति फैन, हिरदे अंधेर ऐन मूढ बहुताई है। अति ही किलेश कर लेही मन रोश घर, सात पन्ने छोर कर राड़ अति छाई है । मिथ्यामति वानी कहे पूरव न रीत गहे । मूढमति पंथ गहे दीक्षा मन ठाई है। विना गुरुवेश धर जिनमत दूर कर, फेर मूढ़ दया कहे लोके की लुगाई है ।।४।।
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