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सम्यक्त्वशल्योद्धार
ठहरेगा ?” उत्तर-पशुवध से संयुक्त जो यज्ञ है उस को दया में ठहराने का हम नहीं कहते हैं; हम तो श्रीहरिकेशी मुनिने जो यज्ञ (श्रीउत्तराध्यनसूत्र में) वर्णन किया है, और जेठे ने भी पृष्ठ (१६८) में लिखा है, उस यज्ञ को दया कहते हैं । इस वास्ते इस बाबत से जेठे की कुयुक्ति वृथा है।
तथा हरिकेशी मुनि के वर्णन से यज्ञपूजा मुनियों के वास्ते है, और यहां तो श्रावक को द्रव्यपूजा का करना सिद्ध करना है, सो श्रावक के अधिकार में साधु की पूजा भद्रिक जीवों को भुलाने वास्ते लिखनी यह महाधूर्त मिथ्यादृष्टियों का काम है और मूढमति जेठा तीस में प्रश्नोत्तर में लिख आया है कि "हरिकेशी मुनि चार भाषा का बोलने वाला उसके वचन की प्रतीति नहीं। तो फिर वही जेठा यहाँ हरिकेशी मुनि के वचन मानने योग्य क्यों लिखता है ? परंतु इस में अकेले जेठेका ही दोष नहीं हैं, किंतु जिन के हृदय की आंख न होती है, ऐसे सर्व ढूंढियों का हाल देखने में आता है।
और पूजा, श्रमण, माहन, मंगल, ओच्छव प्रमुख दया के नाम हैं, इस बाबत जेठा कुयुक्तियां करता है परंतु सो वृथा है, क्योंकि वे नाम लोकोत्तर पक्ष के ही ग्रहण करने के है । लौकिक पक्ष के नहीं, क्योंकि लौकिक में तो अन्य दर्शनी भी साधु, आचार्य, ब्रह्मचारी, धर्म आदि शब्द अपने गुरु तथा धर्म के संबंध में लिखते हैं तो जैसे वह साधु आदि नाम जैनमत मुताबिक मंजूर नहीं होते हैं। वैसे ही यहां दया के नाम में भी पूजा से जिनपूजा समझनी, श्रमण माहण सो जैनमुनि मानने, मंगल सो धर्म गिनना, यो छव सो धर्म के अठाई महोत्सवादि महोत्सव समझने । परंतु इस बाबत निकम्मी कुनक नहीं करनी । यदि पूजा में हिंसा हो और पूजा ऐसा हिंसा का नाम हो तो उसी सूत्र में हिंसाके नाम हैं, उनमें पूजा ऐसा शब्द क्यों नहीं है ? सो आंख खोल कर देखना चाहिये।
श्रीमहानिशीधसूत्र का जो पाठ नवानगर के बेअकल ढूंढकों की तर्फ से आया हुआ था । समकितसार (शल्य) के छपाने वाले बुद्धिहीन नेमचंद कोठारीने जैसा था वैसा ही इस प्रश्नोत्तर के अंत में पृष्ठ १६९ में लिखा है। परंतु उस में इतना विचार भी नहीं किया है| कि यह पाठ शुद्ध है या अशुद्ध ? खरा है कि खोटा ? और भावार्थ इस का क्या है ? प्रथम तो वह पाठ ही महा अशुद्ध है, और जो अर्थ लिखा है सो भी खोटा लिखा है। तथा उस का भावार्थ तो साधु को द्रव्यपूजा नहीं करनी ऐसा है, परंतु सो तो उस की समझ में बिलकुल आया ही नहीं है । इसी वास्ते उस ने यह सूत्रपाठ श्रावक के संबंध में लिख मारा है। जब ढूंढिये श्रीमहानिशीथसूत्र को मानते नहीं है तो उस ने पूर्वोक्त सूत्रपाठ क्यों लिखा है ? यदि मानते हैं तो इसी सूत्र के तीसरे अध्ययन में कहा है कि "जिनमंदिर बनवाने वाले श्रावक यावत् बारह में देवलोक जावें" यह पाठ क्यों नहीं लिखा है ? इसवास्ते निश्चय होता है कि ढूंढियों ने फक्त भद्रिक जीवों को फंसाने वास्ते समकितसार
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