Book Title: Samyaktva Shalyoddhara
Author(s): Atmaramji Maharaj, Punyapalsuri
Publisher: Parshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 196
________________ १७३ होना मानते होंगे दूर खडा होकर रिखजी सूझते हो ? ऐसे पूछकर जो देवे सो ले लेता है। इस से मालूम होता है कि ढूंढिये असूझता आहार ले आते हैं। १६. ढूंढिये शहद खा लेते हैं, परंतु शास्त्रकार ने उस में तद्वर्ण वाले सन्मूछिम जीवों की उत्पत्ति कही है। १७. ढूंढिये मक्खण खाते हैं । उस में भी शास्त्रकार ने तद्वर्णे जीवों की उत्पत्ति कही है। १८. ढूंढिये लसून की चटनी भावनगर आदि शहरों में दुकान दुकान से लेते हैं । देखो इन के दयाधर्म की प्रशंसा ? इत्यादि अनेक कार्योंमें ढूंढिये प्रत्यक्ष हिंसा करते मालूम होते है । इस वास्ते दयाधर्मी ऐसा नाम धराना बिलकुल झूठा है । थोडे ही दृष्टांतों से बुद्धिमान और निष्पक्षपाती न्यायवान पुरुष समझ जावेंगे और ढूंढियों के कुफंदे को त्याग देंगे ऐसे समझ कर इस विषय को संपूर्ण किया है। ॥ इति ॥ ग्रंथ की पूर्णाहुतिः । स्वांतं ध्वांतमयं मुखं विषमयं दृग्धूमधारामयी तेषां यैर्न नता स्तुता न भगवन्मूर्ति न वा प्रेक्षिता देवैश्चारणपुंगवैः सहृदयै रानंदितै वन्दिता । येत्वेतां समुपासते कृतधिय स्तेषां पवित्रं जनु: ।।१।। शार्दूलविक्रीडित वृत्तम् भावार्थ - सम्यग्दृष्टि देवताओं ने और जंघाचारण, विद्याचारणादि मुनिपुंगवों ने शुद्ध हृदय और आनंद से वंदना करी है जिस को, ऐसी श्रीजिनेश्वर भगवंत की मूर्ति को जिन्हों ने नमस्कार नहीं किया है, उन का स्वांत जो हृदय अंधकारमय है, जिन्हों ने उस की स्तुति नहीं की है, उन का मुख विषमय है, और जिन्हों ने भगवंत की मूर्ति का दर्शन नहीं किया है, उन के नेत्र धुंयें की शिक्षा समान है; अर्थात् जिनप्रतिमा से विमुख रहने वालों के हृदय, मुख और नेत्र निरर्थक हैं । और जो बुद्धिमान् भगवंत की प्रतिमा की उपासना अर्थात् भक्तिपूजा आदि करते हैं उनका मनुष्यजन्म पवित्र अर्थात् सफल है। इस पूर्वोक्त काव्य के सार को स्वहृदय में अंकित करके और इस ग्रंथ को आद्यंत |पर्यंत एकाग्र चित्त से पढकर ढूंढकमती अथवा जो कोई शुद्धमार्ग गवेषक भव्यप्राणी बेशक उन लोकों की बिलकुल नादानी मालूम होती है जो इन को अपने चौंके में आने देते हैं। क्योंकि प्रथम तो इन ढूंढियोंमें प्रायः जातिभांति का कुछ भी परहेज नहीं है, नाई, कुम्हार, छींबे, झीवर वगैरेह हरेक जाति को साध बना लेते हैं, दूसरे रात्रि में पानी न होने से गुदा न धोते हों तो अशुचि हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212