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ऊपर के पाठ में श्रावक को द्रव्यपूजा करने का भगवंत का उपदेश है, कूप के पानी समान भावशुचि जल है, और शुभ अध्यवसाय रूप पानी होने से अशुभबंध रूप मल करके आत्मा मलिन होती ही नहीं है, यह पूर्वोक्त सूत्रा चौदह पूर्वधर का रचा हुआ है । जब ढूंढिये इस सूत्र को नहीं मानते हैं तो नीच लोगों के शास्त्रा को मानते होंगे ऐसा मालूम होता है ।
जब पुष्पादिसे जिनराज की पूजा करने से कर्म का क्षय हो जाता है तो इस से उपरांत अन्य दूसरी दया कौन सी है ? जेठा लिखता है कि यदि जिनमंदिर बनवाना, प्रतिमाजी स्थापन करना, यावत् नाटक पूजा करनी इन सर्व में हिंसारूप धूल निकलती है । तो पानी निकलने का कूप का दृष्टांत कैसे मिलेगा।" उत्तर-हम ऊपर लिखा चूके है उसी मुताबिक शुभ अध्यवसाय रूप जल से संयुक्त होने से अशुभबंध रूप मलसे आत्मा मलिन नहीं होती है, मतलब यह है कि जिनमंदर बनवाने से लेकर यावत् सत्रहभेदी पूजा करनी यह सर्व श्रावकों को शुभ भाव से संयुक्त है, इस से हिंसाक्षय करने को पीछे नहीं रहती है, हिंसा तो द्रव्यपूजा भावसंयुक्त करने से ही क्षय हो जाती है, और पुण्य की राशि का बंध होती जाती है । दृष्टांत जो होता है सो एकदेशी होता है । इस वास्ते यहां बंधरूप मल, और शुभ अध्यवसाय रूप जल, इतना ही कूप के दृष्टांत साथ मिलाने का है, क्योंकि जैसा आत्मा का अध्यवसाय हो वैसा ही उस को बंध होता है । जिनपूजा में जो फूल, पानी आदि की हिंसा कहती है, सो उपचार से है । क्योंकि पूजा करने वाले श्रावक के अध्यवसाय हिंसा के नहीं होते है। इस वास्ते फूल प्रमुखा के आरंभ का अध्यवसाय विशेष करके नाश होता है। जैसे नहीं उतरते हुए मुनिमहाराजा का पानी के ऊपर दया का भाव है; अंशमात्र भी हिंसा का परिणाम नहीं; ऐसे ही श्रावकों का भी जल, पुष्प, धूप, दीप आदि से पूजा करते हुए पुष्पादिक के उपर दया का भाव है, हिंसा का परिणाम अंशमात्र भी नहीं। ___ यदि कोई कुमति कहे कि “मिथ्यात्न गुणठाणे में पूजा करे तो उस को क्या फल हो ? उत्तर-श्रीविपाकसूत्र में सुबाहुकुमार का अधिकार है। वहां कहा है कि पूर्वभव में सुबाहुकुमार पहिले गुणठाणे था । भद्रिक सरल स्वभावी था, उस ने सुपात्र में दान देने से बडा भारी पुण्य बांधा । संसार परित्त किया, और शुभ विपाक । फल) प्राप्त किया। इसी तरह मिथ्यात्वी हो, परंतु उदार भक्ति से जिन पूजा करे तो शुभ विपाक प्राप्त करे । इस बाबत श्रीमहानिशीथसूत्र में सविस्तार पूजा के फल कहे है, सो आत्मार्थी प्राणी को देखा लेना । ___ श्रीप्नश्नव्याकरणसूत्र के पहिले संवरद्वार में दया के ६० नाम कहे हैं । उन में| "पूया" अर्थात् पूजा सो भी दया का नाम है । इस वास्ते पूजा सो दया ही जाननी, इस बात को खोटी ठहराने वास्ते जेठा लिखता है कि "पूर्वोक्त" ६० नाम दया के जो हैं| उन में 'यज्ञ' भी दया का नाम कहा है तो पशवध सहित जो यज्ञ सो दया में कैसे
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