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सम्यक्त्वशल्योद्धार
४. धर्मरुचि अणगार ने जिनाज्ञा में धर्म जान के और निरवद्य स्थंडिल का अभाव देखके कड़वे तूंबे का आहार किया है। इस बाबत जेठे ने जो लिखा है सो मिथ्या है । धर्मरुचि अणगार ने तो उस कार्य के करने से तीर्थंकर भगवंत की तथा गुरुमहाराज की | आज्ञा आराधी है, और इस से ही सर्वार्थसिद्ध विमान में गया है ।
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५. श्रीआचारांगसूत्र के पांचवें अध्ययन में कहा है । यत -
अणाणाए एगे सोवट्ठाणे आणाए एगे निरूवठ्ठाणे एवं ते मा होउ ॥
अर्थ जिनाज्ञा से बाहिर उद्यम, और जिनाज्ञा आलस, यह दोनों ही कर्मबंध के कारण हैं, हे शिष्य ! यह दोनों ही तुझ को न होवें । इस पाठ से जो मूढमति जिनाज्ञा से बाहिर धर्म मानते हैं, वह महामिथ्या दृष्टि हैं, ऐसे सिद्ध होता है ।
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६. जेठा लिखता है कि "साधु नदी उतरते हैं सो अशक्य परिहार है" यह लिखना उस का स्वमतिकल्पना का है, क्योंकि सूत्रकार ने तो किसी ठिकाने भी अशक्य परिहार नहीं कहा है; नदी उतरनी सो तो विधिमार्ग है, इस वास्ते जेठे का लिखना स्वयमेव मिथ्या सिद्ध होता है ।
७. जेठा लिखता है कि "साधु नदी न उतरे तो पश्चात्ताप नहीं करते हैं, और | जैनधर्मी श्रावक तो जिनपूजा न हो तो पश्चात्ताप करते है" उत्तर - जैसे किसी साधु को | रोगादि कारण से एक क्षेत्र में ज्यादह दिन रहना पड़ता है तो उस के दिल में मुझ से विहार नहीं हो सका, जुदे जुदे क्षेत्रों में विचर के भव्यजीवों को उपदेश नहीं दिया गया, | ऐसा पश्चात्ताप होता है; परंतु विहार करते हिंसा होती है सो न हुई उसका कुछ पश्चात्ताप नहीं होता है । वैसे ही श्रावकों को भी जिनभक्ति न हो तो पश्चात्ताप होता है, परंतु | स्नानादि न होने का पश्चात्ताप नहीं होता है, इस वास्ते जेठे की कुयुक्ति मिथ्या है । ।। इति ।।
३८. पूजा सो दया है इस बाबत :
३८. वें प्रश्नोत्तर में पूजा शब्द दयावाची है, और जिनपूजा अनुबंधे दयारूप ही है । इस का निषेध करने वास्ते जेठेने कितनीक कुयुक्तियां लिखी हैं सो मिथ्या हैं, क्योंकि जिनराज की पूजा जो श्रावक फूलादि से करते हैं वह स्वदया है । श्रीआवश्यकसूत्र में कहा है कि:
अकसिण पवत्तगाणां विरयाविरयाणा एस खालु जुत्तो ।
संसारपयणुकरणे दव्वत्थए कूदितो ||१||
अर्थ - सर्वथा व्रतों में प्रवृत्त विरताविरती अर्थात् श्रावक को यह पुष्पादिक से पूजाकरणरूप द्रव्यस्तव निश्चय ही युक्त उचित है, संसार पतला करने में अर्थात् घटाने में, क्षय करने में कूप का दृष्टान्त जानना ।
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