Book Title: Samyaktva Shalyoddhara
Author(s): Atmaramji Maharaj, Punyapalsuri
Publisher: Parshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad

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Page 175
________________ १५२ सम्यक्त्वशल्योद्धार जेठा मूढ़मति लिखता है कि "पांचों ही आश्रव का फल सरीखा है"। तब तो जेठा प्रमुख सर्व ढूंढक जैसे कारण से नदि उतरते हैं, मेघ वर्षते में लघुनीति परिठवते हैं, और स्थंडिल जाते हैं, प्रतिलेखना प्रतिक्रमण करते वायुकाय की हिंसा करते हैं, ऐसे ही कारण से मैथुन भी सेवते होंगे, परिग्रह भी रखते होंगे, मूली गाजर भी खा लेते होंगे, तथा जैसी ढूंढकों की श्रद्धा है, ऐसी ही इन के श्रावकों की भी होगी, तब तो उन के श्रावक ढूंढिये भी जैसा पाप अपनी स्त्री से मैथुन सेवने से मानते होगे, वैसा ही पाप अपनी माता, बहिन, बेटी से मैथुन सेवने से मानते होगे ? "स्त्रीत्वाविशेषात् " स्त्रीत्व में विशेष न होने से, मूर्ख जेठे का "पांचों ही आश्रव का फल सरीखा है" यह लिखना अज्ञानता का और एकांत पक्ष का है, क्योंकि वह जिनमार्ग की स्याद्वादशैली को समझा ही नहीं है। जेठा लिखता है, कि "तीर्थंकर भी झूठ बोलते हैं ऐसा जैनधर्मी कहते हैं"। उत्तर - यह लिखना बिलकुल असत्य है, क्योंकि तीर्थंकर असत्य बोले ऐसा कोई भी जैनधर्मी नहीं कहता है । तीर्थंकर कभी भी असत्य न बोले ऐसा निश्चय है । तो भी इस तरह जेठा तीर्थंकर भगवंत के वास्ते भी कलंकित वचन लिखता है तो इस से यही निश्चय होता है कि वह महामिथ्यादृष्टि था । श्रीपन्नवणासूत्र में ग्यारहवें पदे-सत्य, असत्य, सत्यामृषा और असत्यामृषा ये चारों भाषा उपयोगयुक्त बोलने वाले को आराधक कहा है। इस बाबत जेठा लिखता है कि "शासन का उड्डाह होता हो, चौथा आश्रव सेव्या हो तो झूठ बोले ऐसे जैनधर्मी कहते हैं"। उत्तर - यह लेख असत्य है, क्योंकि शासन का उडह होता हो तब तो मुनि महाराजा भी असत्य बोले, ऐसा पन्नवणा सूत्र के पूर्वोक्त पाठ की टीका में खुलासा कहा है, परंतु 'चौथा आश्रव सेव्या हो तो झूठ बोले' इस कथनरूप खोटा कलंक जेठा निन्हव जैनधर्मियों के सिर पर चढाता है सो असत्य है, क्योंकि इस तरह हम नहीं कहते हैं । परंतु कदापि जेठे को ऐसा प्रसंग आया हो और उस से ऐसा लिखा गया हो तो वह जाने और उसके कर्म ! इस प्रश्नोत्तर के अंत में जेठा लिखता है कि "सम्यग्दृष्टि को चार भाषा बोलने की भगवंत की आज्ञा नहीं है" और वह आप ही समकितसार (शल्य) के पृष्ठ १६५ की तीसरी पंक्ति में "सम्यग्दृष्टि चार भाषा बोलने वाला आराधक है ऐसा पन्नवणाजी के ग्यारह में पद में कहा है" ऐसे लिखता है। इस तरह एक दूसरे से विरुद्ध वचन जेठे ने वारंवार लिखे हैं। इसलिये मालूम होता है कि जेठे ने नशे में ऐसे परस्पर विरोधी वचन लिखे हैं। श्रीपन्नवणाजी का पूर्वोक्त सूत्रपाठ साधु आश्री है, ऐसे टीकाकारों ने कहा है, जब साधु को उपयोगयुक्त चार भाषा बोलने वाला आराधक कहा, तब सम्यग्दृष्टि श्रावक उसी तरह चार भाषा बोलने वाले आराधक हो उस में क्या आश्चर्य है ? इस वास्ते जेठे की कल्पना मिथ्या है । ॥ इति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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