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बहत
साधु कर्मक्षय वांछता हुआ यश मानादिक की अपेक्षा बिना दश प्रकार वि से वैयावच्च करे सो साधु तीसरा व्रत आराधे । इस बाबत जेठमल भातपानी तथा उपाधि देनी उस को ही वेयावच्च कहता है सो मिथ्या है । क्योंकि बाल, दुर्बल, वृद्ध, तपस्वी आदि में तो भातपानी का वेयावच्च संभव हो सफक्लतत है परंतु कुल, गण और
साध्वी श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ, तथा चैत्य जो अरिहंत की प्रतिमा की भातपानी देने से ही वैयावच्च नहीं, किंतु वेयावच्च के अन्य बहु प्रकार हैं । जैसे उन्न गण, संघ तथा अरिहंत की प्रतिमा इन का कोई अवर्णवाद बोले । इन की आनना तथा विराधना करे । उस को उपदेशादिक के आदि की विराधना ! टाली और इन के (कुल गण प्रमुख को प्रत्यकका अनेक प्रकार से निवारण कर से ही शामिल है। वैसे अन्य भी प्रकार है।
श्रीसूत्र में हरिकेशी मुनि क यवन में लिखा है कि "जक्खा हु। वाडिय करेति मतलब श्रीहरिकेशीमुनि की वाव करने बाल यक्ष देवता ने मनि को उपसर्ग करने वाले ब्राह्मणों के पुत्रों को जब मारा और ब्राह्मण हरिकेशी मुनि के | समीप आ कर क्षमा मांगने लगा तब श्रीहरिकेशी मुनि ने कहा कि "मैंने कुछ नहीं किया हे परंतु तरी वैयावच करता है । से तुम्हारे पुत्र मारे गये हैं 1" देखो कि यक्ष ने हरिकेशी नांन की वैयावच्च किस राति की है ? ढूंढियो । जा अन्नपानी से ही बचावच होती है ऐसे कहोगे तो देवपिंड तो साधु को अकल्पनिक है और इस ठिकाने तो प्रत्यक्ष रीति से हरिकेशन के प्रत् ब्राह्मण के पुत्रों को यक्षने मारा । उस बाबत हरिकेशीमुनि ने कहा मेरी या वाले यक्ष ने किया है तो यक्ष ने तो ब्राह्मण के पुत्रों की हिंसा की और मुनिने श्री वाद ही । और मुनि का वचन असत्य होता नहीं । तथा शास्त्रकार भी असत्य न लिखेग इस वास्ते अन्नपानी, | उपधि आदि देना ही वैयावच ऐसे एक ही सी मि । पूर्वोक्त पाठ में | खुलासा पंद्रह बोल हैं और बलों के साथ जोड़ने का अर्धे शब्द पंद्रहवे बाल के अंत में है । तथापि जेठमल ने चौदह बोल ठहराए हैं और "चईयट्ठे" अर्थात् ज्ञान के अर्थे वेगावच्च करे ऐसे लिखा है । सो दोनों ही मिथ्या हैं, क्योंकि तान का नाम चैत्य किसी भी शास्त्र में या किसी का कोप में नहीं है । तथा सूत्रों में जहां जहां ज्ञान का अधिकार है वहां वहां सर्वत्र "नाण" शब्द लिखा है । परंतु "चेइय" शब्द नहीं लिखा है । इस वास्ते जेठमल का किया अर्थ खोटा है । और धर्मशी नामा ढूंढक ने | प्रश्नव्याकरण के टों में इसी वेत्य शब्द का अर्थ साधु लिखा है । इस से मालूम होता है कि इन मूढमति ढूंढकों का आपस में भी मेल नहीं है । परंतु इस में कुछ आश्चर्य नहीं ।
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मूलसूत्रकार ने भी "दसविह बहुविह पकरेई" दश प्रकार से तथा बहुत विध से वेयावच्च करे, ऐसे फरमाया है। इस वास्ते वेयावच्च कुछ अन्नपानी, वस्त्र, पात्रादि के देने का ही नाम नहीं
है. प्रत्यनीक का निवारणा भी
है।
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