Book Title: Samyaktva Shalyoddhara
Author(s): Atmaramji Maharaj, Punyapalsuri
Publisher: Parshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad

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Page 141
________________ ११८ सम्यक्त्वशल्योद्धार का अधिकार है, वैसे श्रीमहाकल्पसूत्र में भी प्रायश्चित्त का अधिकार है। सर्व सूत्रों में जुदा जुदा अधिकार है, इस वास्ते मंदिर न जाने के प्रायश्चित्त का अधिकार श्रीमहाकल्पसूत्र में है और अन्य में नहीं है इतने मात्र से जेठे की की कुयुक्ति कुछ सच्ची नहीं हो सक्ति है श्रीहरिभद्रसूरि जो कि जिनशासन को दीपाने वाले महाधुरंधर पंडित १४४४ ग्रंथ के कर्ता थे उन की जेठमल ने व्यर्थ निंद्या करी है सो जेठमल की मूर्खता की निशानी है। अभव्यकुलक में अभव्यजीव जिस जिस ठिकाने पैदा नहीं हो सकता है सो दिखाया है इस बाबत जेठमल लिखता है कि "भव्यअभव्य सर्व जीव कुल ठिकाने पैदा हो चूके ऐसे सूत्र में कहा है। इस वास्ते अभव्यकुलक सूत्रों से विरुद्ध है"। जेठे ढूंढक का यह लिखना महामिथ्यादृष्टित्व का सूचक है यद्यपि शास्त्रों मे ऐसा कथन है कि न सा जाइ न सा जोणी न तं ठाणं न तं कुलं । न जाया न मुया जत्थ सव्वे जीवा अणंतसो ।।१।। __परंतु यह सामान्य वचन है। विचार करो कि मरुदेवीमाता ने कितने दंडक भोगे हैं ? सो तो निगोद में से निकल के प्रत्येक में आ कर मनुष्य जन्म पा कर मोक्ष में चली गई है । और शास्त्रकार तो सर्व जीव सर्व ठिकाणे सर्व जातिरूमें अनंतीवार उत्पन्न हुए कहते हैं । यदि जेठमल ढूंढक इस पाठ को एकांत मानता है तो कोई भी जीव सर्वार्थ सिद्ध विमान तक सर्वजाति सर्वकुल भोगे बिना मोक्ष में नहीं जाना चाहिये ।। और सूत्रों में तो ऐसे बहुत जीवों का अधिकार है जो कि अनुत्तरविमान में गये बिना सिद्धपद को प्राप्त हुए है। मतलब यह कि ढूंढक सरीखे अज्ञानी जीव विना गुरुगम के सूत्रकार की शैली को कैसे जानें ? सूत्र की शैली और अपेक्षा समझनी सो तो गुरुगम में ही रही हुई है । इस वास्ते अभव्यकुलकसूत्र के साथ मुकाबला करने में कुछ भी बिरोध नहीं है । और इसी वास्ते यह मान्य करने योग्य है जो जो ग्रंथ अद्यापि पर्यन्त पूर्व शास्त्रानुसार बने हुए हैं सो सत्य हैं, क्योंकि जैनमत के प्रामाणिक आचार्यों ने कोई १ यदि ढूंढिये अभव्यकुल का अनादर करके न सा जाइ इत्यादि पाठको ही मंजूर करते हैं तो उन के प्रति हम पूछते हैं कि आप बताइए कि-पांच अनुत्तर विमान में देवता, तीर्थकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, प्रतिवासुदेव, बलदेव, नारद, केवलज्ञानी और गणधर के हाथ से दीक्षा तीर्थकर का वार्षिक दान, लोकान्तिक देवता, इत्यादि अवस्थाओं की प्राप्ति अभव्य के जीव को होती है ? क्योंकि तुम तो भव्यअभव्य सर्व को सर्व स्थान जाति कुल योनि में उत्पन्न हुए मानते हो तो तुम्हारे माने मुताबिक तो पूर्वोक्त सर्व अवस्था अभव्यजीव की होनी चाहिये परन्तु होती कभी भी नहीं हैं, और य ही वर्णन अभव्यकुलक में है, तथा अभव्यकुलक की वर्णन की कई बातें ढूंढिये लोक मानते भी है तो भी अभव्यकुलक का अनादर करते हैं जिस का असली मतलब यह है कि अभव्यकुलक में लिखा है कि तीर्थंकर की प्रतिमा की पूजादि सामग्री में जो प्रथिवी, पानी, धूप, चंदन, पुष्पादि काम आते हैं उन में भी अभव्य के जीव उत्पन्न नहीं हो सकते है अर्थात् जिस चीज में अभव्य का जीव होगा वह चीज जिनप्रतिमा के निमित्त या जिनप्रतिमा की पूजा के निमित्त काम में न आवेगी, सो यही पाठ इन को दःखदाई हो रहा है। उलन को सूर्यवत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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