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सम्यक्त्वशल्योद्धार
के पाठमें हैं तथापि जेटा को आचार्य के बनाये कहता है सो मिथ्या है ।
तथा श्रीमहानिशीथसूत्र आउ आचार्यों ने मिल के रचा कहता है, सो भी मिथ्या है, क्योंकि आचार्योंने एकत्र हो कर यह सूत्र लिखा है परंतु नया रचा नहीं है । ४५ बिचले पांच सूत्रों के नाम पूर्वोक्त पाठ में नहीं हैं परंतु सो आदि शब्द से जानने के हैं । इस वास्ते इस में कुछ भी बाधक नहीं है ।
और कितनेक सूत्र, जिनमें से कितनेक ढूंढिये नहीं मानते हैं और कितनेक मानते हैं उन में भी आचार्यों के नाम हैं, सो "सूत्रकर्ता के नाम हैं" ऐसे जेठमल ठहराता है, परंतु सो मिथ्या है, क्योंकि वह नाम बनाने वाले का नहीं है; यदि किसी में नाम होगा तो वह वीरभद्रवत् श्रीमहावीरस्वामी के शिष्य का होगा जैसे लघुनिशीथ में विशाखगणि का नाम है और श्रीपन्नवणासूत्र में श्यामाचार्य का नाम है ।
जेठमल लिखता है कि "नंदिसत्र चौथे आरे का बना हुआ है" सौ मिथ्या है, क्योंकि श्रीनंदिसूत्र तो श्रीदेवद्धिमणिक्षः श्रिमण का बनाया हुआ है और उस के मूलपाठ में वजरवामा, स्थूलभद्र चाणाक्यादिक पांचवें आरे में हुए पुरुषों के नाम हैं।
श्रीआवश्यक तथा नदिसूत्र में कहा है, कि द्वादशांगी गणधर महाराजा ने रची सो रचना अति कठिन मालूम होने से भव्य जीवों के बोधप्राप्ति के निमित्त श्रीआर्यरक्षितसूरि तथा स्कंदिलाचार्यने हाल प्रवर्तन हैं, इस मुताबिक सुगम रचनायुक्त गूंथन किया । इस वास्त कुल सत्र द्वादशांगी के आधार आचार्यों ने गूंथन किये हैं ऐसे समझना ।
मूढमति ढूंढिये मिथ्यात्व के य से बत्तीस सूत्र ही मान कर अन्य सूत्र गणधरकृत नहीं है ऐसे ठहरा के उन का निषेध करते हैं, परंतु इस मुताबिक निषेध करने का उन का असली सबब यह कि अन्य सूत्रों में जिनप्रतिमा संबंधी ऐसे ऐसे खुलासा पाठ हैं कि जिस से ढूंढक का जड़मूल से निकंदन हो जाता है । जिस की सिद्धि में दृष्टांत तरीके श्रीमहाक
लिखते हैं- यत - से भयवं तहारूवं समणं वा मा । १. ५३. घरे गच्छेजा ? हंता गोयमा ! दिणे दिणे गच्छेज्जा । से भयवं जत्थ दिणे ण गच्छेजा तओ किं पायच्छित्तं हवेजा ? गोयमा ! पमायं पडुच्च तहारुवं समणं वा माहणं वा जो जिणघरं न गच्छेजा तओ छठं अहवा दुवालसमं पायच्छित्तं हवेजा । से भयवं समणो वासगस्स पोसहसालाए पोसहिए पोसह बंभयारी किं जिणहरं गच्छेजा ? हंता गोयमा ! गच्छेजा। से भयवं केणतुणं गच्छेजा ? गोयमा १ णाण-दसण-चरणठ्याए गच्छेजा । जे केइ पोसहसालाए पोसह बंभयारी जओ जिणहरे न गच्छेजा तओ पायच्छित्तं हवेजा ? गोयमा ! जहा साहू तहा भाणियव्वं छठं अहवा दुवालसमं पायच्छित्तं हवेजा।।
अर्थ - “अथ हे भगवन् ! तथारूप श्रमण अथवा माहण तपस्वी चैत्यघर यानि
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