Book Title: Samyaktva Shalyoddhara
Author(s): Atmaramji Maharaj, Punyapalsuri
Publisher: Parshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad

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Page 140
________________ ११७ जिनमंदिर जावे ?" भगवंत कहते हैं "हे गौतम ! रोज रोज अर्थात् हमेशा जावे" गौतमस्वामी पछते है " भगवन् ! जिस दिन न जावे तो उस दिन क्या प्रायश्चित्त हो ? " भगवंत कहते हैं "हे गौतम माद के वश से तथारूप साधु अथवा तपस्वी जो जिनगृहे न जाने तो छठ पत्रास, अथवा दुवालस अर्थात् पांच उपवास (व्रत)का प्रायश्चित्त होवे । . . . . . . हैं "हे भगवन् ! श्रमणोपासक श्रावक पोषधशाला में पोषध में रहा हुआ पायध ब्रह्मचारी क्या जिनमंदिर में जावे ?" भगवंत कहते हैं "हां, हे गौतम ! जावे"। गौतमस्वामी पछते हैं "हे भगवन् ! किस वास्ते जावे ? " । भगवंत कहते हैं है गौतम । ज्ञानदर्शनचारित्रार्थे जावे ? गौतमस्वामी पूछते हैं "जो कोई पोषधशाला में रहा हुआ पोषध ब्रह्मचारी श्रावक जिनमंदिर में न जावे तो क्या प्रायश्चित्त होवे ? " भगवंत कहते हैं हे गौतम! जैसे साध को प्रायश्चित्त वैसे श्रावकको प्रायश्चित्त जानना छठ्ठ अथवा दवालसका प्रायश्चित होवे"। पूर्वोक्त पाठ श्रीमहाकल्पसूत्र में हैं, और महाकल्पसूत्र का नाम पूर्वोक्त नंदिसत्र के पाठ में है। जेठे निन्हा ने यह पाठ जीतकल्पसूत्र का है ऐसे लिखा है परंतु जेठे का यह लिखना मिथ्या है, क्योंकि जातकल्पसूत्र में ऐसा पाठ नहीं है । जेठमल लिखता है कि :श्रावक प्रमाद के वश से भगवंत को और साधु कों वंदना न कर सके तो उस का पश्चात्ताप करे परंतु श्रावक को प्रायश्चित्त न होवे" उत्तर-पासह वाल श्रावक की क्रिया प्रायः साधु सदृश है । इस वास्ते जैसे साधु को प्रायश्चित्त होवे वैसे श्रावक को भी होवे । __ जेठमल लिखता है कि "बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ, तथा आचारांग में प्रायश्चित्त के अधिकार में मंदिर न जाने का प्रायश्चित्त नहीं कहा है" उत्तर-कोई अधिकार एक सूत्र में होता है और कोई अधिकार अन्य सत्र में होता है सर्व अधिकार एक ही सत्र में नहीं होते हैं । जैसे निशीथ, महानिशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, जीतकल्प प्रमुख सूत्रों में प्रायश्चित्त तथा तुंगीया, सावत्थी, आलंभिका प्रमुख नगरियों के जो शंखजी, शतकजी, पुष्कलीजी, आनंद और कामदेवादिक जैनी श्रावक थे वे सर्व प्रतिदिन तीन वक्त श्रीजिनप्रतिमा की पूजा करते थे । तथा जो जिनपूजा करे सो सम्यक्त्त्वी और जो न करे सो मिथ्यात्वी जानना इत्यादि कथन भी इसी सूत्र में है-तथाच तत्पाठ :तेण कालेणं तेणं समएणं जाव तुंगीया नयरीए बहवे समणोवासगा परिवसति संखे सयए सियप्पवाले रिसीदत्ते दमगे पुक्खली निबद्धे सुप्पइठे भाणुदत्ते सोमिले नरवम्मे आणंद कामदेवाइणो अन्नत्थगामे परिवसति अट्ठा दित्ता विच्छिन्न विपुल वाहणा जाव लट्ठा गहियट्ठा चाउद्दसमुदिल पुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसह पालेमाणा निग्गंथाण निग्गंथिणय फासुएसणिजेणं असणादि ४ पडिलाभेभाणा चेइयालएसु तिसझं चंदणपुप्फधूववत्थाइहिं अञ्चण कणमाणा जाव जिणहरे विहरंति से तेणटेण गोयमा जो जिण पडिम पूएइ सो नरो सम्पदिठि जाणियब्यो । जो जिणपडिम न पूएइ सो मिच्छादिठ्ठि जाणियब्वो । मिच्छदिठ्ठिस्स नाण न हवइ चरण न हवइ मुक्खं न हवइ । सम्मदिठुिस्स नाणं चरण मुक्ख च हवइ से तेणतुण गोयमा सम्मादिठिसढे हिं जिणपडिमाणं सुगंधपुष्पचंदणविलेवणेहिं पूया कायव्वा ।। इति ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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