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भावार्थ एक ही है । इस वास्ते केवल वंदर शब्द कहा है । उसमें कोई विरोध नहीं हैं परंतु वंदइ एक शब्द है वास्ते वहां प्रतिमा वांदी ही नहीं है, ऐसे कथन से जेठमल | श्रीभगवतीसूत्र के पाठ को विराधने वाला सिद्ध होता है ।
पुनः जेठमल लिखता है कि- " वहाँ चेइआई शब्द कर के चारणमुनि ने प्रतिमा वांदी नहीं है किंतु इरियावही पडिकमने वक्त लोगस्स कह कर अरिहंत को वांदा है। | सो चैत्यवंदना की है । "उत्तर अरे भाई चैत्य शब्द का अर्थ अरिहंत ऐसा किसी भी शास्त्र में कहाँ नहीं है । चैत्य शब्द का तो जिनमंदिर, जिनबिंब, और चबूतरा बद्ध वृक्ष यह तीन अर्थ अनेकार्थसंग्रहादि ग्रंथों में किये हैं और इरियावही पडिकमने में | लोगस्स कहा सो चैत्य वंदना की ऐसे तुम कहते हो तो सूत्रों में जहां जहां इरियावही | पडिकमने का अधिकार है वहां वहां इरियावही पडिकमें ऐसे तो कहा है, परंतु किसी | जगह भी चैत्यवंदना करे ऐसे नहीं कहा है; तो इस ठिकाने अर्थ फिराने के वास्ते मन में आवे वेसे कुतर्क करते हो सो तुम्हारे मिथ्यात्व का उदय है ।
फिर "चेइआई वंदित्तए इस शब्द का अर्थ फिराने वास्ते जेठमल ने लिखा है कि "उस वाक्य का अर्थ जो प्रतिमा वांदी ऐसा है तो नंदीश्वरद्वीप में तो यह अर्थ मिलेगा । परंतु मानुषोत्तर पर्वत पर और रूचकद्वीप में प्रतिमा नहीं है । वहां कैसे मिलेगा ?" | उस का उत्तर- हमने प्रथम वहां जिनभवन और जिनप्रतिमा हैं ऐसा सिद्ध कर दिया है । | इस वास्ते चारणमुनियों ने प्रतिमा ही वांदी है ऐसे सिद्ध होता है, और इस से ढूंढकों की धारी कुयुक्तियां निरर्थक है ।
तथा जेठमल ने लिखा है कि जंघाचारण विद्याचारण मुनि प्रतिमा वांदने को बिलकुल गये नहीं है क्योंकि जो प्रतिमा वांदने को गये हो तो पीछे आते हुए मानुषोत्तर | पर्वत पर सिद्धायतन है उनको वंदना क्यों नहीं की ?" इसका उत्तर - चारणमुनि प्रतिमा वांदने को ही गये हैं, परंतु पीछे आते हुए जो मानुषोत्तर के चैत्य नहीं वांदे है सो उन की गति का स्वभाव है; क्योंकि बीच में दूसरा विसामा ले नहीं सकते हैं, यह बात | श्रीभगवतीसूत्र में प्रसिद्ध है, परंतु पूर्वोक्त लेख से जेठमल महामृषावादी उत्सूत्र प्ररूपक था ऐसे प्रत्यक्ष सिद्ध होता है, क्योंकि पूर्वोक्त प्रश्नोत्तर में वह आप ही लिखता है कि मानुषोत्तर पर्वत पर चैत्य नहीं हैं और प्रश्न में लिखता है कि मानुषोत्तर पर्वत पर चैत्य क्यों नहीं वांदे ? इससे सिद्ध होता है कि मानुषोत्तर पर्वत पर चैत्य जरूर हैं । परंतु | जहाँ जैसा अपने आपको अच्छा लगा वैसा जेठमलने लिख दिया है। किंतु सूत्रविरुद्ध | लिखने का भय बिलकुल रक्खा मालूम नहीं होता है । पुनः जेठमल ने लिखा है कि "चारणमुनियों को चारित्रमोहनी का उदय है इस वास्ते उन को जाना पडा है परंतु अरे
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किसी ठिकाने चैत्य शब्द का प्रतिमा मात्र अर्थ भी होता है, अन्य कई कोषों में देवस्थान देवावासादि अर्थ भी लिखे हैं, परन्तु चैत्य शब्द का अर्थ अरिहंत तो कहीं भी नहीं मालूम होता है ।
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